Sunday 11 September 2011

चूक गए सफलता के अचूक मंत्र

( विजय त्रिपाठी)
भाद्रपद माह के शुक्लपक्ष की पूर्णिमा की पूर्व सन्ध्या पर हिंदू संस्कृति के चिंतकों-लेखकों में शुमार डॉ. (कांग्रेस से क्षमा समेत) रमेश पोखरियाल निशंक की मुख्यमंत्री के तौर पर पारी का चंद्रास्त हो रहा है। यूं तो निशंक के मायने ही होते हैं निशा का अंक यानी ऐसा शख्स जिसकी पहचान रात से जुड़ी हो,
बदलाव का यह समय भी शायद नक्षत्रीय संयोग ही है। लेकिन उत्तराखंड के सियासी आकाश में उनका सूर्योदय भी तेजी से हुआ और तेज इतना कि अपने छोटे राजनैतिक करिअर में वे सूबे के मुख्यमंत्री बन बैठे। लेकिन विवादों के ग्रहण भी रह-रहकर उन्हें डसते रहे, उनकी छवि भी चांद जैसी दागदार हो गई। कभी सरस्वती शिशु मंदिर के मामूली शिक्षक रहे निशंक ने अपने पत्रकारीय जीवन में इतनी ब्रेकिंग न्यूज नहीं दी होंगी जितनी ब्रेकिंग न्यूज में वे एक राजनेता के तौर पर बने रहे।

डॉ. निशंक की डाक्टरेट की डिग्री पर अक्सर कलह होती रहती है। मुख्य विपक्ष कांग्रेस उनकी जन्मतिथि और उनकी डिग्री को ही झुठलाती है। वे डॉ. हों न हों, लेकिन उनके ज्ञानात्मक निष्कर्षों और साहित्यिक पक्ष के मुरीद गैर सियासी लोग भी हैं, यहां तक कि प्रमुख साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादक नामचीन साहित्यकार राजेंद्र यादव भी। राजनीति में ज्ञान की इस गंगा के वे छोटे-मोटे भगीरथ कहे-माने जा सकते हैं।
अमूमन कुछ लेखक अपना भोगा लिखते हैं तो ऐसा दुर्लभ ही होता है कि किसी को अपना लिखा भोगना पड़े। वे सूत्र और सिद्धि जो वो दूसरों को समझाता है, खुद अपने पर आती है तो उलझ-से जाते हैं। फेरबदल के मौजूदा घटनाचक्र पर नजर डालें तो लेखक-साहित्यकार-चिंतक निशंक के साथ भी काफी-कुछ ऐसा होता दिखता है।
अपनी लिखी किताब ‘सफलता के अचूक मंत्र’ में निशंक कहते हैं कि ‘सफलता के लिए भविष्यदृष्टि बेहद जरूरी है। सर्वश्रेष्ठ लीडर भविष्यदृष्टा होते हैं और उसी के अनुरूप काम करते हैं।’ लेकिन विडंबना देखिए कि लेखक भविष्य के संकट की तीव्रता का अंदाजा न लगा सका और न ही उससे निपटने के अनुरूप कोई कार्ययोजना ही बना सका। दृष्टि बाधित रही और भविष्य पर संकट। नतीजा सामने है।
इसी किताब के ‘रिश्तों को संवारे’ चैप्टर में वे कहते हैं कि संबंधों का प्रबंधन आपकी सफलता की गारंटी है। रिश्तों का आधार होता है एक-दूसरे पर भरोसा करना। हर समय एक दूसरे की कमियां गिनाने से कुछ नहीं होगा। जो अच्छा है, उसे याद रखिए।
रिश्तों की सबसे ज्यादा समझ राजनीति ही कराती है लेकिन मिलनसार-मृदुभाषी लेखक बनते-बिगड़ते सियासी रिश्तों को साधने-संभालने में यहां भी नाकाम रहा। जिन्होंने लेखक को आगे बढ़ाया, वे ही उनके आगे और आड़े आ गए।
परिवर्तनों पर चर्चा करते हुए निशंक कहते हैं कि नई जिम्मेदारियों से भागने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। उसे चुनौती के तौर पर लेना चाहिए।
-(लेखक देहरादून अमर उजाला के संपादक है )

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