Tuesday 2 August 2011

ढोल दमाऊं का प्यार लाया सात समंदर पार

श्रीनगर गढ़वाल-फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला सात समंदर पार का कोई गोरा अगर गढ़वाली बोले, गढ़वाली गीत गाए और ढोल-दमाऊं बजाए तो हर कोई आश्चर्यचकित होगा ही। टिहरी के पुजार गांव में इन दिनों यह नजारा देखा जा रहा है।
अमेरिका का एक प्रोफेसर गांव वालों के बीच रहकर न सिर्फ उनकी बोली बोलता है, बल्कि गायन और वादन से उनका मनोरंजन भी करता है। ढोल-दमाऊं का प्यार ही उसे सात समंदर पार से भारत खींच लाता है।

हम बात कर रहे हैं अमेरिका की सिनसिनाटी विश्वविद्यालय के एथनोम्युजिकोलजी विभाग के प्रोफेसर स्टीफन फियोल की। विवि का यह विभाग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों के लोक संगीत का मानव विज्ञान की दृष्टि से अध्ययन करता है। स्टीफन भी उत्तराखंड के लोक संगीत का यहां के लोगों पर प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। वर्ष 2000 में पहली बार वह घूमने के उद्देश्य से एक साल के लिए भारत आया। इस दौरान उन्होंने वाराणसी में सितार सीखने के साथ ही मसूरी में दो माह हिंदी बोलने का प्रशिक्षण भी लिया। 2003 में दो माह के लिए भारत आने पर वह पहली बार उत्तराखंड पहुंचे। यहां की प्राकृतिक सुंदरता, संस्कृति, संगीत व लोक कलाओं को देखकर वह अंत्यंत प्रभावित हुए।

2005 में यूनिवर्सिटी ऑफ इलेनऑय के अपने रिसर्च के संबंध में वह फिर एक साल के लिए उत्तराखंड पहुंचे। इस दौरान उसकी मुलाकात संस्कृति प्रेमी व गढ़वाल विवि के प्रो. डीआर पुरोहित से हुई। प्रो. पुरोहित के साथ रहकर ही उसने कई तरह की लोक कलाओं, संगीत, नृत्य, परंपराओं इत्यादि का अध्ययन किया। ढोल वादक सोहन लाल व सुकारु दास से भी इसी दौरान उसकी मुलाकात हुई, जिनके साथ रहकर उसने ढोल-दमाऊं, मश्कबीन, मोछंग आदि वाद्य यंत्र बजाने का अभ्यास किया। 2007 में एक साल के लिए वह फिर उत्तराखंड पहुंचे और पुजार गांव में रहकर लोक संगीत की बारीकियां सीखीं। इसी दौरान उन्होंने गढ़वाली बोली व गीत भी सीखे। स्टीफन के अनुसार भारत के कई राज्य घूमने के बाद लगा कि उत्तराखंड के लोक संगीत में यहां के समाज की परंपराएं, मेले, रीति रिवाज, संस्कृति व सभ्यता मिली हुई हैं। इसलिए इस लोक संगीत के अध्ययन में रुचि जागृत हुई। स्टीफन 2005 में छह ढोल-दमाऊं बनाकर अपने साथ अमेरिका भी ले गए। उन्होंने बताया कि अपने विभाग के छात्रों को वह उन्हीं वाद्य यंत्रों की मदद से उत्तराखंड के संगीत का अभ्यास कराते हैं।

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