Thursday 25 November 2010

उत्तराखंड की लोक संस्कृति,

उत्तराखंड की लोक संस्कृति, जन मानस, पहाड़, नदी, बुग्याल जन जीवन को गहरे से समझना हो तो नरेंद्र सिंह नेगी के गीतों से अच्छा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लोक संगीत के क्षेत्र में नेगी का सफर छत्तीस सालों का है। नेगी लोकगायक हैं। गीतकार हैं। साहित्यकार हैं और संस्कृतिकर्मी हैं। उन्हें उत्तराखंड का प्रतिनिधि कलाकार कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। उत्तराखंड की मिट्टी पर केंद्रित उनके तमाम गीत पर्वतीय जनमानस में भीतर तक बसे हैं। नेगी साहित्य और कला परिषद के सदस्य रह चुके हैं। तमाम अवार्ड उनके नाम हैं। लोक भाषा साहित्य संस्थान के बतौर अध्यक्ष भी वह सक्रियता से काम कर रहे हैं। उत्तराखंड के दस सालों में लोक संस्कृति की क्या दशा-दिशा रही है। उन्हीं की जुबानी। राज्य बनने से पहले यहां की लोक संस्कृति, उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर राजनीतिक नेतृत्व की कमजोर इच्छा शक्ति दिखाई पड़ती थी। लोक संस्कृति का विषय उसे सड़क, बिजली पानी के आगे गौण लगता था। मगर अब सोच में बदलाव आ रहा है -नरेंद्र सिंह नेगी, लोक गायक लोक संस्कृति पर संजीदा हो रहा नेतृत्व उत्तराखंड की लोक संस्कृति के संबंध में शुभ संकेत महसूस किए जा रहे हैं। हर नए राज्य में ऐसा होता है। बहुत पुरानी बात नहीं है, हमें याद है कोई हमसे पूछता था कि आप कहां से हैं, तो जवाब होता था देहरादून। अपने गांव कसबे का परिचय देने में हमें हिचक महसूस होती थी। मगर अब हम सीधे अपने गांव कस्बे के नाम पर आते हैं। उत्तराखंडी कहलाने में अब हमें कोई हिचक नहीं है। मैं अपनी बात कहता हूं। जब हमने गाना शुरू किया तो उस वक्त लोग गढ़वाली की जगह तुरंत ही हिंदी गाने के लिए कह देते थे। आज विदेशों से गढ़वाली, कुमाऊंनी गानों के लिए हमें बुलाया जा रहा है। हमारे शो में लोग टिकट लेकर आते हैं। काफी पहले मोहन उप्रेती अपनी टीम के साथ विदेश जाते थे। दिल्ली उनके लिए प्लेटफार्म बनती थी। मगर आज पौड़ी, मसूरी, टिहरी से कलाकार विदेश जा रहे हैं। ये बदली हुई स्थिति राज्य बनने के कारण है। हमने खुद को उत्तराखंडी मानना शुरू किया है, तो मार्केट पर भी इसका असर दिख रहा है। यहां के लोक कलाकारों को काम मिलने लगा है। आडियो-वीडियो के बाजार में तेजी आई है। सबसे बड़ी बात पर मैं आना चाहूंगा। राज्य बनने से पहले यहां की लोक संस्कृति, उससे जुड़े तमाम पहलुओं पर राजनीतिक नेतृत्व की कमजोर इच्छा शक्ति दिखाई पड़ती थी। लोक संस्कृति का विषय उसे सड़क, बिजली पानी के आगे गौण लगता था। मगर अब सोच में बदलाव आ रहा है। राजनीतिक नेतृत्व की बदली मन:स्थिति को दो उदाहरणों के साथ बताना चाहूंगा। एक, निशंक सरकार ने गढ़वाली और कुमाऊंनी को लोकभाषा का दर्जा दिलाने के लिए संकल्प पारित कर केंद्र सरकार को भेजा है। यह बड़ी बात है। दूसरा, संसद में गढ़वाली और कुमाऊंनी को राजभाषा का दर्जा देने के संबंध में गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज की ओर से उठाई गई आवाज। मेरा मानना है कि प्राइमरी स्कूलों के पाठ्यक्रमों में गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषाओं को रखा जाना चाहिए। जिस तरह से यहां भाषा और संस्कृत एकेडमी बनाई गई है, उसी तरह लोकभाषा एकेडमी भी बने। लोक संस्कृति की मजबूती के लिए काम होंगे। साहित्य एकेडमी में जो 24 भाषाएं सूचीबद्ध हैं, उनमें 17वें नंबर पर गढ़वाली और 18वें पर कुमाऊंनी हैं। राजनीतिक नेतृत्व और पब्लिक का पूरा दबाव बना तो दोनों को राजभाषा बनने में देरी नहीं लगेगी। एनडी तिवारी सरकार ने साहित्य और कला परिषद, फिल्म परिषद का गठन कर सराहनीय कार्य किया था। हालांकि खास काम नहीं हो पाया। इन दोनों पर ही काम आगे बढ़ना चाहिए। तभी क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों के लिए संभावनाएं बन पाएंगी। -

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