Friday 8 October 2010

संस्कृति से जुड़े हैं परंपरागत जलस्रोत

नौलों में दिखती है आस्था, संस्कृति व परंपरा की जीवंतता नवीन बिष्ट, अल्मोड़ा: जल, वायु, अग्नि में जीवन निहित है। आदिकाल से ही मानव तीनों जीवनदायिनी तत्वों का पूजक रहा है। हमारी संस्कृति से परंपरागत जलस्रोतों के संरक्षण, संवद्र्धन से गहरा रिश्ता है। संस्कृति के साथ ही जलस्रोतों का संरक्षण, संवद्र्धन आज तक अनवरत चल रहा है। जल ही जीवन है की उक्ति को लेकर आदिमानव से ही चिंतन की शुरूआत हुई थी। इस बात को अनेक शोधकर्ताओं ने अपने शोध पत्रों में उल्लिखित किया है। पर्वतीय क्षेत्रों में जब मानव विकास की दिशा में कदम रख रहा था तो सबसे पहले उसने ऐसे स्थानों में अपना आवास या आश्रय बनाया जहां जल था। इस विषय पर पुरातत्ववेत्ता डा.चन्द्र सिंह चौहान ने अपने शोध में परंपरागत जलस्रोत व संस्कृति विषय पर हर पहलू को छुआ है। उनका कहना है कि साधारणतया जल व्यवस्था प्रकृति द्वारा संचालित है। नदी, नाले, जलस्रोतों की स्थिति को देखकर मानव ने अपनी बस्तियां बसाई। जहां-जहां जलस्रोत सूखते गए बस्तियां भी जलस्रोतों के साथ वीरान हो गई। प्राचीनकाल से ही मानव ने प्राकृतिक जल प्रणाली में परिवर्तन के प्रयास किए। डा.चौहान ने गंगा के उद्गम पर भगीरथ का भी उल्लेख किया है। अपने शोध पत्र में देवल शिलालेख में पीलीभीत के छिन्दवंशी राजा लल्ल द्वारा कठ नदी के जल को अपनी राजधानी तक मिट्टी के पाइपों द्वारा पहुंचाने का जिक्र किया है। इसके अतिरिक्त गढ़वाल में चांदपुर गढ़ी, कुमाऊं में चंपावत के लोहाघाट के पास चौमेल, दौनकोट, पिथौरागढ़ में दुगईआगर, अल्मोड़ा के कुंवाली नैणी में भी मिट्टी के पाइप मिले हैं। उनका कहना है कि मध्यकाल से लेकर कुमाऊं में अंग्रेजों के हस्तक्षेप से पूर्व पर्वतीय क्षेत्र में जल के उपयोग के लिए अनेक व्यवस्थाएं थी। जिसमें संचय के लिए नौलों की तकनीकी पर्वतीय क्षेत्रों में ही देखने को मुख्यत: मिलती है। पर्वतीय क्षेत्रों में नदी, घाटी, नालों, गधेरों को छोड़कर संभवत: ऊंचे पहाड़ी क्षेत्रों में जब मानव ने बसना शुरू किया तो शुद्ध जल संचय के लिए छोटे-छोटे चुपटौले बनाए गए होंगे। मध्य घाटी में जहां पानी नहीं मिलता होगा चुपटौलों का ही उपयोग किया होगा। लंबे समय तक यह प्रक्रिया चलने के बाद विकास के साथ नौलों का विकास यहां तक हुआ कि उसमें आस्था, कला, संस्कृति व परंपराओं का अनूठे दर्शन देखने को मिलते हैं। हालांकि आज नौलों की परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो रही है। पानी के संरक्षण के लिए चाल, खाल व खंती की परंपरा नई नहीं है, बल्कि आदिमानव द्वारा खोजी गई विधि है। जो आज के वैज्ञानिक युग में पहले से ज्यादा महत्व रख रही है। प्राचीनकाल से आधुनिककाल तक पर्वतीय क्षेत्र में विभिन्न राजवंशों ने शासन किया। प्राकृतिक जलस्रोतों, नौलों, धारों के संरक्षण को लेकर राजशाही के दौरान सैकड़ों ताम्र पत्र आज भी जल के संरक्षण के प्रति चिंता व जागरूकता को प्रदर्शित करते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं जल के संरक्षण, संवद्र्धन के साथ संस्कृति का गहरा रिश्ता है।

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