Friday 12 February 2010

बीते दिनों की बात हुए 'तिबारी और 'जंगला

-विलुप्ति की कगार पर पहुंची पहाड़ की परंपरागत भवन निर्माण शैली -नगरों से लेकर गांवों तक में कंक्रीट के ढांचों का बढ़ रहा दायरा उत्तराखंड-सदियों पहले पर्वतीय परिवेश की जरूरतों के मुताबिक विकसित हुई भवन निर्माण शैली विलुप्ति की कगार पर है। नगरीय इलाकों के साथ अब गांवों में भी कंक्रीट के ढांचे आकार लेने लगे हैं, जिनमें पुरानी शैली का बिलकुल इस्तेमाल नहीं किया जाता। इसके चलते कभी पर्वतीय घरों की पहचान रहे तिबारी और जंगला भी बीते दिनों की बात बनते जा रहे हैं। कभी पहाड़ की पहचान के तौर पर जाने जाने वाले परंपरागत निर्माण शैली से बने मकान अपना सदियों पुराना स्वरूप खोते जा रहे हैं। कभी पहाड़ी पूर्वजों ने पहाड़ की भौगोलिक परिस्थितियों के मुताबिक लकड़ी, पत्थर, मिट्टी से बने इन मकानों का निर्माण शुरू किया था। इन घरों में बनने वाली तिबारी, देहरी, जंगला, खोली आदि बेहद कलात्मक होते थे। खास बात यह है कि पत्थरों की मोटी दीवार और उसके बाहर खास तरह की मिट्टी (कमेड़ा) की परत इन मकानों को वातानुकूलित बनाए रखती थी, जिससे ये घर सर्दियों में गर्म व गर्मियों में ठंडे रहते थे। इतना ही नहीं, मकान की बनावट में देवदार, तुन, शीशम व चीड़ का इस्तेमाल इस तरह किया जाता था कि ये भूकंपरोधी होते थे। मकान का डिजाइन इस तरह बनाया जाता था कि दो से तीन मंजिला मकानों में लकड़ी की सीढिय़ां अंदर ही बनी होती थीं, जिससे दूसरी मंजिल पर जाने को बाहर आने की जरूरत नहीं रहती। इन भवनों का वास्तु शिल्प भी पुराने कारीगरों की मेहनत को बयां करता है। तिबार में लगे लकड़ी के खंबों समेत दरवाजे, खिड़कियों व जंगलों पर की गई नक्काशी काबिले तारीफ थी। हालांकि, उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप भवन शैलियों में अंतर भी पाया जाता है, लेकिन छत के लिये पठाल व दीवारों की मजबूती के लिये लकड़ी के मोटे खंबों का इस्तेमाल सभी जगह समान रूप से होता था। हर तरह से पहाड़ के लिए उपयोगी होने के बावजूद नगरीकरण की होड़ में पहाड़वासी खुद अपनी पहचान को छोड़ते जा रहे हैं। गत दो दशक में पर्वतीय नगरों, कस्बों सहित सड़क से सटे गांवों में ऐसे परंपरागत मकानों का अस्तित्व काफी सिमट गया है। जिन गांवों में सड़कें नहीं पहुंच सकी हैं, वहां भी घोड़ों- खच्चरों के जरिए सीमेंट, सरिया आदि निर्माण सामग्री पहुंचाकर आधुनिक मकान तैयार किए जाने लगे हैं। उधर, परंपरागत भवन निर्माण शैली के हाशिये पर जाने से इसके कारीगरों का रोजगार छिन गया है। ये लोग मजदूरी से जुडऩे लगे हैं। मुस्टिकसौड़ निवासी बलवीर, जमनालाल व विमला ने बताया कि दस साल पहले तक उन्हें ऐसे मकान बनाने का काम मिल जाता था, लेकिन अब कोई इसके लिए तैयार नहीं है। आर्किटेक्ट केसी कुडिय़ाल के मुताबिक परंपरागत भवन शैली पहाड़ों में अनुभव के आधार पर तैयार हुई थी। वह कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के दौर में ऐसे मकानों की जरूरत भी बढ़ गई है। इनमें लखवाड़ में महासू देवता मंदिर व धराली में परंपरागत व आधुनिक शैली के मिश्रण से तैयार हो रही एक इमारत शामिल हैं।

No comments:

Post a Comment