Tuesday 22 December 2009

साक्षात्कार-उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. 'निशंक

मुझसे ज्यादा गरीबी शायद ही किसी ने देखी हो: निशंक - बचपन पहाड़ की पथरीली राहों पर बीता, मां को अभावों से लोहा लेते देखा, असुविधाओं से साथ-साथ किताबें भी पढ़ीं, शायद यही था अनुकूल तापमान, जिसमें डा. रमेश पोखरियाल 'निशंक में रचनाशीलता पैदा हुई। राजनीति की ऊसर और पथरीली भूमि और साहित्य के सौम्य सागर में एक साथ विचरण करना समुद्र से गंगा-यमुना के पानी को अलग-अलग करना असंभव कार्य है, लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री डा. 'निशंक इस भूमि को भी उर्वरा बना रहे हैं और सागर से मोती भी चुन रहे हैं। उनकी कृतियां स्त्री के पुरुषार्थ की हिमायती हैं। राजनीति में रहकर भी सतत् साहित्य साधनारत डा. 'निशंक से डा. वीरेंद्र बत्र्वाल की बातचीत के अंश-पहला स्वाभाविक प्रश्न, राजनीति व साहित्य दोनों में संतुलन कैसे बना लेते है आप?--दरअसल मेरे लिए दोनों का उद्देश्य एक ही है। दोनों के माध्यम से समाज को जगाना चाहता हूं, आम आदमी को आगे बढ़ते देखना चाहता हूं, नारी में पुरुषार्थ जगाना चाहता हूं, राष्ट्र के लिए समर्पण भाव चाहता हूं। इसीलिए दोनों विधाओं में संतुलन बना रहता है। लिखने की प्रेरणा कहां से मिली? देखिए, किसी कलाकार-रचनाकार में बाहर से हुनर स्थापित नहीं किया जा सकता। जब भावनाएं शब्दों का रूप लेती हैं तो कविता-कहानी तो खुद ही बन जाती हैं। आपने कठिनाइयों देखी हैं, शिक्षा व साहित्य रचना में बाधाएं आई होंगी? यह सवाल अतीत में ले गया मुझे। दसवीं तक किसी तरह गांव में पढ़ाई, इसके बाद बाहर निकला। खुद परिश्रम कर और व्यवस्थाएं जुटाकर बारहवीं, बीए, एमए और पीएचडी तक की पढ़ाई की। शिक्षा हो या साहित्य मैंने कठिनाइयों को अपनी ताकत बनाया कमजोरी नहीं। मेरे लिए साहित्य समर्पण नहीं संघर्ष की प्रेरणा है। आप सक्रिय राजनीति में हैं और सक्रिय साहित्य में भी, कैसे?मैं तो राजनीति को साहित्य का पूरक मानता हूं। मैंने अनेक गंभीर सवाल जो अपनी रचनाओं में उठाएं हैं, उनका समाधान राजनीति में रहते हुए खुद कर रहा हूं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी ने भी मेरी रचनाओं पर कहा था कि 'निशंक एक दिन तुम अपने साहित्य में उठाए गई समस्याओं का समाधान खुद करोगे। आपकी कुछ रचनाएं अधूरी हैं, मुख्यमंत्री बनने के बाद आपकी व्यस्तता और बढ़ी है, इन रचनाओं को पूरा करने को समय कैसे निकाल पाते हैं?इतनी व्यस्तता के बाद भी मेरा लेखन नहीं छूटा है। मेरा साहित्य सृजन अनवरत जारी है। रात को करीब एक घंटे जब तक कुछ लिख-पढ़ न लूं, तब तक नींद ही नहीं आती। सोने से पहले मैं कुछ न कुछ लिखता जरूर हूं। आपकी रचनाओं के नायक विवश, हालात के मारे हैं। विकट परिस्थितियों में अचानक कोई मसीहा बनकर प्रकट होता है और उन्हें लक्ष्य तक पहुंचाता है। 'एन ओरडियलÓ के प्रदीप के लिए भुवन लाला और 'एक और कहानी में प्रकाश के लिए रामप्रसाद ऐसे ही फरिश्ते दिखाई दिए हैं। इससे क्या संदेश देने का प्रयास किया आपने? इसका संबंध अप्रत्यक्ष तौर पर मेरे जीवन से जुड़ा है। मैं सोचता हूं कि ऐसे फरिश्ते मुझे जिंदगी की राह में मिलते तो कई बार उन निराशाओं का सामना नहीं करना पड़ता, जो मेरे मार्ग में आईं। मैंने इससे संदेश देने का प्रयास किया कि समाज के समृद्ध वर्ग के लोगों को जरूरतमंदों और मजबूर लोगों की सहायता के लिए आगे आना चाहिए। निर्धनता के मामले में आपके पात्र प्रेमचंद की 'रंगभूमि के सूरदास, 'पूस की रात के हल्कू जैसे हैं। किन परिस्थितियों ने आपसे इन पात्रों की सृष्टि करवाई?झकझोरने वाला प्रश्न है। आपको बताऊं, मुझसे ज्यादा गरीबी शायद ही किसी ने देखी हो। जब पांचवीं में पढ़ता था तो पैरों में जूते नहीं होते थे, तन पर पूरे कपड़े नहीं होते थे। इसके बाद की पढ़ाई के दौरान भी स्थिति अच्छी नहीं रही। मैंने खेतों में हल चलाया, गोबर डाला, जंगल से लकडिय़ां लाया। जिसने इस घोर गरीबी और अभाव का जीवनयापन किया हो, उस कवि-लेखक के पात्रों में तो गरीबी झलकेगी ही न? आपका 'प्रतीक्षा खंडकाव्य देशभक्ति, एक मां की आशा-निराशा और विछोह की पीड़ा पर केंद्रित है। इसकी जमीन कहां से तैयार की?कारगिल की लड़ाई से। उत्तराखंड में अनेक फौजियों की माताओं का अहसास ही इसकी जमीन है। पहाड़ी समाज में महिला का हल चलाने और चिता को मुखाग्नि देने पर कठोर वर्जना है, फिर भी 'प्रतीक्षा में दीपू की मां को हल चलाते हुए दिखाकर आप लिखते हैं-'तब कंधे पर हल को रखकर बैलों के संग खेत गई, खेत जोतकर सीर चलाना जीवन की दशा नई? मैंने इसमें महिला के पुरुषार्थ को दिखलाया है। पहाड़ की नारी में इतनी हिम्मत-हौसला है कि वह कठिन सा कठिन कार्य कर सकती है। वह परिस्थितियों के अनुसार थोथी वर्जनाओं को तोड़ सकती है। मेरी मां ने भी हल चलाया है। 'हिंदी देश की शानमें आपने हिंदी का यशोगान किया है। अब हिंदी के लिए कोई खास पहल? की है, कर रहा हूं। महत्वपूर्ण यह है कि मैं प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रियों को हिंदी में ही पत्र भेजता हूं और वहां से अब उत्तर हिंदी में ही आते हैं। मां-भाई को एकाकी परिवार में रखने पर पति-पत्नी के बीच खटपट को आपने खासा उकेरा है? संयुक्त परिवार के महत्व को देखते हुए उस प्रथा को अपनाने की प्रेरणा दी मैंने। 'अनुभव शेष रहे में आप लिखते हैं- ' कौन कष्ट है शेष जगत में जो नित मैंने नही सहा आपने ऐसे कौन से भीषणतम कष्ट झेले, जो कविता के आखर बन गए? गिनती नहीं है। मौत तक के संघर्ष झेले हैं मैंने। मौत कई तरह की होती है, भावनाओं की भी तो मौत होती है। ऐसी ही परिस्थितियों से ये कविताएं फूटी हैं। शहरी जीवन को आडंबर युक्त बताते हुए आप गांव जाने की प्रेरणा देते हैं। क्या इसके लिए खुद समय निकाल पाते हैं? इस व्यस्तता में भी समय निकालकर जरूर गांव जाता हूं। कुछ ही दिन पहले मैं गांव गया था। आज के युवा पैसे और सुख-सुविधा की होड़ में अपने परिवार से दूर होते जा रहे हंै और पत्नी बच्चों को समय नहीं दे पा रहे हैं। 'चक्रव्यूह में इसका आपने एक प्रकार से विरोध किया है, क्यों?पैसा अपनी जगह है, परिवार अपनी जगह। विशेषकर संयुक्त परिवार, जिनसे हमें संस्कार मिलते हैं। और पत्नी-बच्चों को भी तो उनका वांछित प्यार मिलना चाहिए। (साभार दैनिक जागरण )

Sunday 20 December 2009

-पुरानी टिहरी डूबने के साथ ही डूब गई सांस्कृतिक गतिविधियां भी

-मास्टर प्लान शहर में न वह रौनक न पहले जैसा मेलजोल नई टिहरी,---- ऐतिहासिक पुरानी टिहरी शहर डूबने के साथ ही कभी राष्ट्रीय स्तर तक इसकी पहचान के रूप में जानी जाने वाली सांस्कृतिक गतिविधियां भी खत्म हो गईं। इसके एवज में मास्टर प्लान के तहत बसाए गए नई टिहरी शहर में न तो पुरानी टिहरी जैसी रौनक है, न ही सांस्कृतिक और खेल गतिविधियां। कंक्रीट के इस नीरस शहर में मनोरंजन के लिए लोग तरस जाते हैं। पुरानी टिहरी, जिसे गांव का शहर भी कहा जाता था, में हर तरफ चहल-पहल रहती थी। सांस्कृतिक, खेल व अन्य सामाजिक गतिविधियों से गुलजार इस शहर में वक्त कब गुजर गया, पता ही नहीं चलता था। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विभिन्न खेल प्रतियोगिताएं या मेले शहर में समय-समय पर कोई न कोई आयोजन होता रहता था। रामलीला, बसंतोत्सव, मकर संक्रांति पर लगने वाला मेला शहर की रौनक में चार चांद लगा देते थे। दीपावली या अन्य पर्वों पर सामूहिक कार्यक्रम शहर में होते थे, लेकिन बांध की झाील में पुरानी टिहरी के डूबने के साथ ही शहर की यह पहचान भी खत्म हो गई। पुरानी टिहरी के बाशिंदों को मास्टर प्लान के तहत बने नई टिहरी शहर में बसाया गया, लेकिन इसमें वह बात कहां, जो उस शहर में थी। न रौनक, न वह मेल- जोल और न ही वे सांस्कृतिक गतिविधियां, जब भी याद आती है, नई टिहरी में बस गए बुजुर्गों की आंखें नम हो जाती हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर नई टिहरी में पनप रही बंद दरवाजे की संस्कृति और आधुनिक रहन-सहन का बढ़ता चलन लोगों के दिलों की दूरियां बढ़ा रहा है। सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य इस शहर में वर्ष 2001 में उत्तरांचल शरदोत्सव हुआ। उसके बाद एकाध बार नगरपालिका द्वारा शरदोत्सव का आयोजन तो किया गया, लेकिन इसके बाद यहां न कोई सांस्कृतिक और न ही कोई सामूहिक कार्यक्रम आयोजित हुए हैं। मास्टर प्लान में कल्चर सेंटर का प्राविधान था, लेकिन इसके लिए भी कोई पहल अब तक नहीं हुई है। पुरानी टिहरी जैसा मेल-जोल भी यहां नहीं। वहां लोग पैदल घूमने निकलते, तो परिचितों से मुलाकात होती और फिर परिवार, समाज, राजनीति जैसे मसलों पर रायशुमारी भी होती, लेकिन नई टिहरी की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां पैदल चलना भी आसान नहीं है, सीढिय़ों के इस शहर में चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते लोग हांफ जाते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक संस्था त्रिहरी से जुड़े महिपाल नेगी कहते हैं कि नई टिहरी में सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना होनी चाहिए। सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए समाज को आगे आना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी निराशा जताई कि अब लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत की जड़ों को भूलने लगे हैं।

-उत्तराखंड के इंटर व डिग्र्री कालेजों में दिया जायेगा अब पायलट प्रशिक्षण

-उत्तराखंड के इंटर व डिग्र्री कालेजों में दिया जायेगा अब पायलट प्रशिक्षण -पंतनगर विवि, एमबी डिग्र्री कालेज हल्द्वानी के अलावा कुमाऊं के नौ इंटर कालेजों का चयन -प्रशिक्षण के लिए पंतनगर यूनिट को दो हवाई जहाज भी मिले हल्द्वानी: अभी तक सैनिक बनने की ट्रेनिंग ले रहे स्कूल-कालेज के विद्यार्थी अब उड़ान भी भरेंगे। यानि उनको पायलट की ट्रेनिंग भी दी जायेगी। इसके लिए गृहमंत्रालय और रक्षा मंत्रालय ने संयुक्त रूप से उत्तराखंड का चयन किया है। यह ट्रेनिंग सप्ताह में दो दिन पंतनगर हवाई अड्डे पर दी जाया करेगी, इसके लिए भारत सरकार ने दो हवाई जहाज भी राज्य को दे दिए हैैं। आसमान में उड़ते हवाई जहाज को देखकर हर बच्चे के मन में उसमें बैठने या चलाने की इच्छा जागती है। बचपन में आपके भी जागी होगी। मगर हवाई जहाज में बैठने या उसको चलाने की तमन्ना अधिकांश के मन में अक्सर घुटकर ही रह जाती है। मगर अब ऐसा नहीं होगा। सैनिक बनने की इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे जिस तरह स्कूल-कालेजों में नेशनल कैडिट कोर (एनसीसी) का प्रशिक्षण लेते है उसी तरह अब हवाई जहाज का पायलट बनने के लिए भी स्कूल-कालेजों में उनको प्रशिक्षण दिया जायेगा। यह नई व्यवस्था फिलहाल उत्तराखंड के कुछ इंटर व डिग्र्री कालेजों में की गई है। वायुसेना की इस पहल को गृहमंत्रालय और रक्षामंत्रालय ने हरीझांडी दे दी है। वायुसेना पंतनगर के कमांडिंग अफसर विंग कमांडर नीरज सांगुड़ी ने बताया कि वायुसेना का यह नया प्रयास है। इसके लिए फिलहाल प्रशिक्षण की यूनिट पंतनगर यूनीवर्सटी और हल्द्वानी के एमबी डिग्र्री कालेज में शुरू की जा रही हैं। इसके अलावा कुमाऊं के सात इंटर कालेजों का भी चयन किया गया है। जिसमें थारू इंटर कालेज खटीमा जेडी, पंतनगर का कैंपस इंटर कालेज, एएन झाा इंटर कालेज रुद्रपुर, राजकीय कन्या इंटर कालेज बाजपुर, जसपुर और काशीपुर, एलपी इंटर कालेज भीमताल (नैनीताल), मेजर अधिकारी राजकीय इंटर कालेज नैनीताल और बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल शामिल हैं। इसके प्रशिक्षण के लिए एमबी डिग्र्री कालेज हल्द्वानी और पंतनगर यूनीवर्सिटी को 50-50 सीटें दी गई हैं। मेजर अधिकारी राजकीय इंटर कालेज और बिड़ला विद्या मंदिर नैनीताल में प्रवेश की 40-40 सीटें रहेंगी। बाकी इंटर कालेजों में प्रवेश की 30-30 सीटें रहेंगी। यह पायलट प्रशिक्षण होगा। इसमें सीनियर और जूनियर की दो श्रेणी होंगी। सीनियर कैडेट्स में प्रवेश के लिए विद्यार्थी का भौतिक विज्ञान और गणित से इंटर पास होना जरूरी है, जबकि जूनियर कैडेट्स के लिए फिलहाल शैक्षिक योग्यता हाईस्कूल तय की गई है। प्रशिक्षण दो वर्षीय होगा। सप्ताह में शनिवार और रविवार को पंतनगर हवाई पट्टी पर विद्यार्थियों को प्रशिक्षण दिया जाये करेगा। प्रशिक्षण के लिऐ उत्तराखंड को दो हवाई जहाज मिल चुके हैैं। प्रशिक्षण के लिए कालेजों से बच्चों को पंतनगर हवाई पट्टी लाने और वापस ले जाने का जिम्मा वायुसेना ही उठाएगी। इसके लिए भी वायुसेना यूनिट पंतनगर को चार वाहन मिल चुके हैैं। प्रशिक्षण फीस समेत कई अन्य जानकारियों के बारे में एमबी डिग्र्री कालेज में एनसीसी के साथ अब वायुसेना प्रशिक्षण के प्रभारी डा.एसके गुरुरानी ने बताया कि प्रशिक्षण संबंधी कई चीजों की गाइड लाइन मिलना अभी बाकी है। राज्य में बाकी कालेजों का जैसे-जैसे चयन होता जायेगा, उनके प्रशिक्षण स्पॉट भी साथ में ही तय होंगे।

सेना की भर्ती

-18 से 42 वर्ष तक के अभ्यर्थी करेंगे भागीदारी -सात राज्यों से केआरसी में तीन जनवरी को शुरू होगी भर्ती रानीखेत(अल्मोड़ा): कुमाऊं रेजीमेंट रानीखेत में उत्तराखंड समेत सात राज्यों के अभ्यर्थियों के लिए आगामी 3 जनवरी से 111 पैदल वाहिनी (प्रादेशिक सेना) के विभिन्न पदों की भर्ती शुरू होगी। इस भर्ती में 42 वर्ष की उम्र तक के अभ्यर्थी हिस्सा ले सकेंगे। रानीखेत में होने वाली 111 पैदल वाहिनी (प्रादेशिक सेना) कुमाऊं की भर्ती के लिए शारीरिक परीक्षा की तिथि 3 जनवरी, 2010 निर्धारित की गई है। यह शारीरिक परीक्षा इस तिथि को कुमाऊं रेजीमेंट सेंटर रानीखेत में प्रात: 6:30 बजे से होगी। जीएसओ-1 (ट्रेनिंग) कैप्टन अनंत थापन ने बताया है कि शारीरिक दक्षता परीक्षा में उत्तीर्ण अभ्यर्थियों की डाक्टरी व कागजातों की जांच 4 से 6 जनवरी तक होगी। इस भर्ती में उत्तराखंड समेत उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, झाारखंड, छत्तीसगढ़ व मध्य प्रदेश के अभ्यर्थी हिस्सा लेंगे। इसके लिए आयु सीमा 18 से 42 वर्ष निर्धारित की गई है। यह भर्ती सिपाही (सामान्य), क्लर्क, हाउस कीपर (सफाई वाला) व स्टीवर्ड (मेस वेटर) के पदों के लिए होगी। सिपाही के लिए शैक्षिक योग्यता 45 प्रतिशत अंकों के साथ मैट्रिक पास, क्लर्क के लिए 50 प्रतिशत अंकों के साथ इंटर पास, मेस वेटर के लिए दसवीं पास व हाउस कीपर के लिए आठवीं पास रखी गई है। अभ्यर्थियों से अपने साथ शैक्षिक प्रमाण पत्रों समेत निवास, चरित्र प्रमाण पत्र, 12 पासपोर्ट साइज फोटो, खेलकूद प्रमाण पत्र इत्यादि लाने को कहा गया है। -

Friday 18 December 2009

-जिन्हें बिसराया, वे ही संवार सकते हैं रीढ़

- उत्तराखंड में महत्व न मिलने से हाशिये पर गए बेडु, मेलू, घिंघोरा जैसे जंगली फल - स्वादिष्ट होने के साथ ही पौष्टिकता से भी लबरेज - लोक संस्कृति में रचे-बसे ये फल बन सकते हैं आर्थिकी का जरिया , देहरादून उत्तराखंड में महत्व न मिलने से बेडू, तिमला, काफल, मेलू, घिंघोरा, अमेस, हिंसर, किनगोड़ जैसे जंगली फल हाशिये पर चले गए। स्वादिष्ट एवं सेहत की दृष्टि से महत्वपूर्ण इन फलों को बाजार से जोडऩे पर ये आर्थिकी संवारने का जरिया बन सकते हैं, मगर अभी तक इस दिशा में कोई पहल होती नहीं दीख रही। उत्तराखंड में पाए जाने वाले जंगली फल यहां की लोकसंस्कृति में गहरे तक तो रचे बसे हैं, मगर इन्हें वह महत्व आज तक नहीं मिल पाया, जिसकी दरकार है। अलग राज्य बनने के बाद जड़ीबूटी को लेकर तो खूब हल्ला मचा, मगर इन फलों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझाी गई। देखा जाए तो ये जंगली फल न सिर्फ स्वाद, बल्कि सेहत की दृष्टि से कम अहमियत नहीं रखते। बेडू, तिमला, मेलू, काफल, अमेस, दाडि़म, करौंदा, जंगली आंवला व खुबानी, हिसर, किनगोड़, तूंग समेत जंगली फलों की ऐसी सौ से ज्यादा प्रजातियां हैं, जिनमें विटामिन्स और एंटी ऑक्सीडेंट की भरपूर मात्रा है। विशेषज्ञों के अनुसार इन फलों की इकोलॉजिकल और इकॉनामिकल वेल्यू है। इनके पेड़ स्थानीय पारिस्थितिकीय तंत्र को सुरक्षित रखने में अहम भूमिका निभाते हैं, जबकि फल आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। बात सिर्फ इन जंगली फलों को महत्व देने की है। अमेस (सीबक थार्म) को ही लें तो चीन में इसके दो-चार नहीं पूरे 133 प्रोडक्ट तैयार किए गए हैं और वहां के फलोत्पादकों के लिए यह आय का महत्वपूर्ण स्र्रोत बन गया है। उत्तराखंड में यह फल काफी मिलता है, पर इस दिशा में अभी तक कोई कदम नहीं उठाए गए हैं। काफल को छोड़ अन्य फलों का यही हाल है। काफल को भी जब लोग स्वयं तोड़कर बाहर लाए तो इसे थोड़ी बहुत पहचान मिली, लेकिन अन्य फल तो अभी भी हाशिये पर ही हैं। जबकि, इन फलों को बाजार से जोड़ा जाए तो ये सूबे की आथर््िाकी का महत्वपूर्ण जरिया बन सकते हैं। जंगली फलों में पोषक तत्व काफल अन्य फलों की अपेक्षा 10 गुना ज्यादा विटामिन सी अमेस विटामिन सी खुबानी विटामिन सी, एंटी ऑक्सीडेंट आंवला विटामिन सी, एंटी ऑक्सीडेंट सेब विटामिन ए, एंटी ऑक्सीडेंट तिमला, बेडू विटामिन्स से भरपूर ''उत्तराखंड में मिलने वाले जंगली फल पौष्टिकता की खान हैं, लेकिन इन्हें अब तक महत्व नहीं मिल पाया। प्रयास यह हो कि इन्हें आगे बढ़ाया जाए। जंगली फलों की क्वालिटी डेेवलप कर इनकी खेती की जाए। इसके लिए मिशन मोड में वृहद कार्ययोजना बनाकर कार्य करने की जरूरत है। इससे जहां पारिस्थितिकी तंत्र मजबूत होगा, वहीं आर्थिकी भी संवरेगी'' - पद्मश्री डा.अनिल जोशी, संस्थापक शोध संस्था हेस्को। ''जंगली फल उपेक्षित जरूर रहे हैं, लेकिन अब इन्हें पर्याप्त महत्व दिया जाएगा। प्रथम चरण में मेलू (मेहल), तिमला, आंवला, जामुन, करौंदा, बेल समेत एक दर्जन जंगली फलों की पौध तैयार कराने का निर्णय लिया गया है। एनजीओ के जरिए यह नर्सरियों में तैयार होगी। आज नहीं तो कल इन फलों को क्रॉप का दर्जा मिलना है। फिर ये तो आर्थिकी के लिए अहम हैं।''- डा.बीपी नौटियाल, निदेशक, उद्यान विभाग उत्तराखंड।

स्व-राज्य तो मिल गया, लेकिन सु-राज का अभी इंतजार-

लंबे संघर्ष के बाद उत्तराखंड के लोगों को स्व-राज्य तो मिल गया, लेकिन सु-राज का अभी इंतजार है। कर्मचारी बेफिक्र हैं और अधिकारी मस्त। जनता बेचारी क्या करे, किससे गुहार लगाए। कुछ दिनों पहले राजधानी में ही एएनएम ने अस्पताल को किराए पर चढ़ा दिया, किसी को खबर नहीं लगी। कलेक्ट्रेट में मां की बजाए बेटा नौकरी करता रहा, यहां भी महकमे के जिम्मेदार लोगों ने साथी कर्मचारी के लिए 'सद्भावना' का परिचय दिया। वो तो डीएम के निरीक्षण के दौरान पोल खुल गई, वरना न जाने कब तक यह सब चलता रहता। ये तो राजधानी में सामने आए कुछ 'नमूने' हैं। ये हाल उस जगह का है, जहां स्वयं सरकार विराजमान है। अब दूर-दराज के इलाकों की बात करें। वहां तो स्थितियां पूरी तरह अनुकूल हैं, यही वजह है कि वहां 'अपनी मर्जी अपना राज' वाले अंदाज में काम चल रहा है। बिन बताए गैरहाजिर रहने का ट्रेंड तो अब पुराना पड़ चुका है। इससे भी आगे निकल मुलाजिमों ने नए तरीके ईजाद कर लिए हैं। नए तरीके ऐसे कि देखने वाले भी दंग रह जाएं। इसके लिए माह में एकाध बार से ज्यादा उपस्थिति दर्ज कराने की जरूरत नहीं है। चकराता क्षेत्र में शिक्षा विभाग के निरीक्षण में इन तरीकों का खुलासा हुआ। शिक्षकों ने स्कूल में बाकायदा ठेके पर बेरोजगारों को नियुक्त किया हुआ है। ये बेरोजगार ही उनकी जगह पर स्कूल का संचालन कर रहे हैं। अलग राज्य बनने के बाद उम्मीद की जा रही थी कि जो खामियां अविभाजित उत्तर प्रदेश में थीं, उनसे मुक्ति मिल जाएगी, वजह यह मानी जा रही थी छोटी प्रशासनिक इकाइयां ज्यादा सक्रियता से जनता तक पहुंचेगी, लेकिन यह मंशा अभी तक फलीभूत न हो सकी। आखिर यह सब कब तक चलेगा। यदि नौ साल बाद भी जनता को उन्हीं समस्याओं से जूझाना पड़ रहा है तो यह गंभीर मसला है। अब यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह स्वस्थ माहौल बनाए और ऐसे कर्मचारियों के खिलाफ कठोर दंडात्मक कार्रवाई करे, जिससे दूसरे भी सबक ले सकें। तभी जाकर अवाम का विश्वास बहाल हो सकेगा।

(नई टिहरी) सपनों के शहर में अपनों की तलाश

-पुरानी टिहरी डूबने के साथ ही डूब गई सांस्कृतिक गतिविधियां भी -मास्टर प्लान शहर में न वह रौनक न पहले जैसा मेलजोल नई टिहरी,---- ऐतिहासिक पुरानी टिहरी शहर डूबने के साथ ही कभी राष्ट्रीय स्तर तक इसकी पहचान के रूप में जानी जाने वाली सांस्कृतिक गतिविधियां भी खत्म हो गईं। इसके एवज में मास्टर प्लान के तहत बसाए गए नई टिहरी शहर में न तो पुरानी टिहरी जैसी रौनक है, न ही सांस्कृतिक और खेल गतिविधियां। कंक्रीट के इस नीरस शहर में मनोरंजन के लिए लोग तरस जाते हैं। पुरानी टिहरी, जिसे गांव का शहर भी कहा जाता था, में हर तरफ चहल-पहल रहती थी। सांस्कृतिक, खेल व अन्य सामाजिक गतिविधियों से गुलजार इस शहर में वक्त कब गुजर गया, पता ही नहीं चलता था। सांस्कृतिक कार्यक्रम, विभिन्न खेल प्रतियोगिताएं या मेले शहर में समय-समय पर कोई न कोई आयोजन होता रहता था। रामलीला, बसंतोत्सव, मकर संक्रांति पर लगने वाला मेला शहर की रौनक में चार चांद लगा देते थे। दीपावली या अन्य पर्वों पर सामूहिक कार्यक्रम शहर में होते थे, लेकिन बांध की झाील में पुरानी टिहरी के डूबने के साथ ही शहर की यह पहचान भी खत्म हो गई। पुरानी टिहरी के बाशिंदों को मास्टर प्लान के तहत बने नई टिहरी शहर में बसाया गया, लेकिन इसमें वह बात कहां, जो उस शहर में थी। न रौनक, न वह मेल- जोल और न ही वे सांस्कृतिक गतिविधियां, जब भी याद आती है, नई टिहरी में बस गए बुजुर्गों की आंखें नम हो जाती हैं। हों भी क्यों नहीं, आखिर नई टिहरी में पनप रही बंद दरवाजे की संस्कृति और आधुनिक रहन-सहन का बढ़ता चलन लोगों के दिलों की दूरियां बढ़ा रहा है। सांस्कृतिक दृष्टि से शून्य इस शहर में वर्ष 2001 में उत्तरांचल शरदोत्सव हुआ। उसके बाद एकाध बार नगरपालिका द्वारा शरदोत्सव का आयोजन तो किया गया, लेकिन इसके बाद यहां न कोई सांस्कृतिक और न ही कोई सामूहिक कार्यक्रम आयोजित हुए हैं। मास्टर प्लान में कल्चर सेंटर का प्राविधान था, लेकिन इसके लिए भी कोई पहल अब तक नहीं हुई है। पुरानी टिहरी जैसा मेल-जोल भी यहां नहीं। वहां लोग पैदल घूमने निकलते, तो परिचितों से मुलाकात होती और फिर परिवार, समाज, राजनीति जैसे मसलों पर रायशुमारी भी होती, लेकिन नई टिहरी की भौगोलिक संरचना ऐसी है कि यहां पैदल चलना भी आसान नहीं है, सीढिय़ों के इस शहर में चढ़ाई चढ़ते-चढ़ते लोग हांफ जाते हैं। सामाजिक सांस्कृतिक संस्था त्रिहरी से जुड़े महिपाल नेगी कहते हैं कि नई टिहरी में सांस्कृतिक केन्द्र की स्थापना होनी चाहिए। सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए समाज को आगे आना चाहिए। उन्होंने इस बात पर भी निराशा जताई कि अब लोग अपनी सांस्कृतिक विरासत की जड़ों को भूलने लगे हैं।

Wednesday 16 December 2009

2500 वर्ष पुराना है उत्तराखंडी मूर्ति शिल्प

-विद्वान मानते हैं उत्तराखंड का अपना कोई मूर्तिशिल्प नहीं, बल्कि प्रतिहार शैली का प्रभाव -एएसआई का कहना है कि छठी सदी ईस्वी पूर्व से विकसित होने लगी था उत्तराखंड का स्वतंत्र मूर्ति शिल्प देहरादून, आम तौर पर विद्वान मानते हैं कि उत्तराखंड का अपना कोई मूर्ति शिल्प नहीं था बल्कि मध्य हिमालय का मूर्तिशिल्प प्रतिहार कालीन मूर्तिशिल्प से प्रभावित है, लेकिन यह पूरी तौर पर सही नहीं है। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई)का कहना है कि उत्तराखंड में अलग-अलग जगहों से मिली मूर्तियां यह सुबूत पेश करती हैं कि इस पूरे क्षेत्र में छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के बाद से मूर्तिकला की स्वतंत्र शैली विकसित हो रही थी जो 9वीं और 10वीं सदी में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच चुकी थी। एएसआई देहरादून मंडल के अधीक्षण पुरातत्वविद् डॉ. देवकी नंदन डिमरी का कहना है कि गोपेश्वर, जागेश्वर, बैजनाथ और लाखामंडल मध्य हिमालयी मूर्तिशिल्प के प्रमुख केेंद्र थे। उनका कहना है कि मध्य हिमालय में मूर्तिकला का इतिहास मानव संस्कृति की उत्पत्ति के इतिहास से जोड़ा जा सकता है। इस क्षेत्र में विभिन्न स्थानों से मिली प्रागैतिहासिक शैलाश्रयों में मानव द्वारा उकेरी गई कलाकृतियां मूर्तिकला की उत्पत्ति का प्रमाण पेश करती हैं। आद्यएतिहासिक काल में ताम्रनिधि सांस्कृतिक स्थलों से मिले मानवाकृति ताम्र उपकरण मध्य हिमालय में मूर्तिकला के क्रमिक विकास की ओर इशारा करते हैं। चमोली जिले के मलारी से मिला स्वर्ण मुखौटा महाश्म संस्कृति में प्रतिमा विज्ञान के विकास का परिचायक है। रानीहाट, मोरध्वज आदि स्थलों से खुदाई में मिली मनुष्य और पशुओं की मिट्टी की मूर्तियां इस क्षेत्र में मूर्तिकला के प्रचलन के प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। ऐतिहासिक युग में स्थानीय मूर्तिशिल्प के विकास को तीसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में खोजा जा सकता है। इसमें कालसी के अशोक के चतुर्दश अभिलेख में उत्कीर्ण हाथी की आकृति प्रमुख साक्ष्य है। इसके बाद कुणिंद सिक्कों में अंकित लक्ष्मी, हिरन, शिव की आकृतियां, पुरोला अश्वमेध यज्ञ वेदिका से मिले स्वर्ण फलक पर उत्कीर्ण अग्नि की प्रतिमा उस समय मूर्तिकला के विकास के बारे में बताती हैं। इसके अलावा मोरध्वज उत्खनन में मिली कुषाणकालीन केशीवध व अन्य मिट्टी की मूर्तियां मध्य हिमालय की मूर्तिकला के विकास के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं। डॉ. डिमरी के मुताबिक दूसरी सदी ई.पू. से दूसरी सदी के बीच मथुरा कला के कुछ विशिष्ट उदाहरण भी उत्तराखंड में आयातित किए गए। इनमें नैनीताल जिले के बयानधुरा से मिले यक्ष, यक्षी, कीचक गणों से युक्त वेदी स्तंभ, देहरादून जिले के ऋषिकेश के भरतमंदिर की शिव और यक्षी प्रतिमाएं, चमोली जिले के त्रिजुगी नारायण से मिले स्थानक विष्णु हरिद्वार से, पिथौरागढ़ जिले के नकुलेश्वर की चतुर्भज स्थानक विष्णु मूर्ति उल्लेखनीय हैं। डॉ.डिमरी के मुताबिक विशुद्ध रूप से स्थानीय प्रस्तर में अब तक ज्ञात प्राचीनतम प्रतिमा अल्मोड़ा जिले के गुना से मिली तीसरी सदी की यक्ष प्रतिमा है। उसके बाद छठी सदी ईस्वी से इस क्षेत्र में मूर्ति शिल्प के क्रमिक विकास के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं।

-आखिर कब तक रह पाते जड़ों से दूर

राजधानी में बढ़ रही पहाड़ी भोजन के शौकीनों की तादाद परचून की दुकान ही नहीं, डिपार्टमेंटल स्टोरों की भी शान बने पहाड़ी अनाज इन दिनों राजमा, तोर, गहथ जैसी दालों के साथ ही मंडुवे की है खासी खपत देहरादून: वक्त ने करवट ली और रहन-सहन के मायने बदल गए। दिखावे की चाह में जड़ें छूटने लगीं और चकाचौंध में अस्तित्व कहीं गुम-सा हो गया, पर अति हमेशा नुकसानदेह ही होती है, यह बात समझा में आई तो फिर जड़ों ने ही सहारा दिया। चलो अच्छा है देर से ही सही, जड़ों के छूटने की अहमियत का अंदाजा तो हुआ। संदर्भ उत्तराखंड के पहाड़ी अनाज का ही है, जिसे महानगरों में बैठे लोग बिसरा बैठे थे, अब वे इसके महत्व को समझाने लगे हैं। राजधानी देहरादून भी इससे अछूती नहीं है और गढ़भोज के शौकीनों की तादाद में लगातार इजाफा हो रहा है। यही वजह है कि पहाड़ी अनाज न सिर्फ परचून की दुकानोंं, डिपार्टमेंटल स्टोर्स की शान भी बन गए हैं। मौसम सर्दियों का है तो इन दिनों पहाड़ी राजमा, तोर, गहथ जैसी पौष्टिक दालों के साथ ही मंडुवे के आटे की खपत ज्यादा बढ़ गई है। अतीत में झाांके तो महानगरों की चकाचौंध में पहाड़ी अनाज कहीं खो सा गया था। आधुनिक दिखने की चाह में थाली में 'जहर' को भी स्वीकार किया जाने लगा। वजह यह कि रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध इस्तेमाल से 'जहरीली' होती जमीन ने फसलों को भी अपने आगोश में ले लिया। जाहिर है 'जहरयुक्त' अन्न खाने से सेहत भी नासाज होने लगी। ऐसे में जंक फूड और बीमारियों के इस दौर में थाली में बदलाव के लिए फिर से याद आई पहाड़ी अनाजों की। सरकार की ओर से कुछ प्रयास हुए तो लोगों ने पहाड़ में पैदा होने वाले जैविक अनाजों मंडुवा, झांगोरा, कौणी, राजमा, उड़द, गहथ, तोर समेत अन्य पौष्टिक फसलों के महत्व को समझाा। फिर होने लगी महानगरों में इन अनाजों की खोज, यानी शुरू हुआ जड़ों की ओर लौटने का दौर। राजधानी इसका उदाहरण है। बीते पांच-छह सालों से दून में भी लोग धीरे-धीरे पहाड़ी अनाज की ओर उन्मुख हुए और आज यह उनकी पहली पसंद बन गए हैं। आज राजधानी में गली-मुहल्लों की दुकानों से लेकर डिपार्टमेंटल स्टोर्स तक में पहाड़ी अनाज अपनी चमक बिखेर रहे हैं। दून में विकास भवन स्थित सरस मार्केटिंग सेंटर का ही जिक्र करें तो वहां जैविक उत्पाद परिषद, कृषि विभाग, ग्राम्य विकास विभाग के काउंटरों से रोजाना ही बड़ी संख्या में लोग पहाड़ी अनाज खरीद रहे हैं। सरस मार्केटिंग सेंटर में जैविक उत्पाद परिषद के काउंटर के सेल्समैन भुवनेश पुरोहित बताते हैं कि सेंटर से प्रतिमाह 50 हजार से अधिक मूल्य के पहाड़ी अनाज बिकते हैं। इन दिनों तो तोर, कुलथ, नौरंगी, काला व सफेद भट, राजमा, उड़द, मंडुवे का आटा, लाल चावल, बासमती, भूरा चावल की ज्यादा डिमांड है। आने वाले दिनों में यह और बढ़ेगी। राजपुर रोड स्थित एक डिपार्टमेंटल स्टोर के प्रबंधक अजय असवाल के अनुसार पहाड़ी राजमा, सोयाबीन, तोर, कुलथ जैसी दालों की मांग बढ़ी है और लोग इन्हें ढूंढते हैं। अब तो यह दालें डिपार्टमेंटल स्टोरों की शान बन गई हैं। इधर, हनुमान चौक स्थित एक व्यवसायी एके अग्रवाल का कहना है कि पहाड़ी अनाज यूं तो अब पूरे साल पसंद किए जा रहे हैं, मगर सर्दियों के सीजन में डिमांड ज्यादा रहती है। हनुमान चौक के एक अन्य व्यवसायी जितेंद्र ने बताया कि उनकी चक्की से ही प्रतिमाह पांच-सात कुंतल मंडुवे का आटा ही बिकता है।

विकास में छूटे पीछे

उत्तराखंड समेत तीन राज्यों का गठन वर्ष 2000 में करने के दौरान यह तर्क दिया गया कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा बिहार जैसे बड़े राज्यों में उक्त क्षेत्रों का विकास अवरुद्ध हो गया है, इसलिए छोटी प्रशासनिक इकाई के तौर पर इन्हें नया राज्य बनाया जाना चाहिए। छोटे राज्य बनने के बाद उक्त क्षेत्र तेजी से विकास कर सकेंगे। इस परिकल्पना को लेकर बने उत्तराखंड, झाारखंड व छत्तीसगढ़ राज्य अब तक नौ साल के सफर में अपने उद्देश्यों पर खरे नहीं उतरे। इन राज्यों की विकास दर राष्ट्रीय विकास दर 9.4 प्रतिशत को भी नहीं छू पाई। उससे आगे निकलने की छटपटाहट तो दूर तक नजर नहीं आती। विकास की दौड़ में काफी आगे बढ़ चुके राज्यों के करीब पहुंचना इन छोटे राज्यों के लिए अब भी दूर की कौड़ी बनी हुई है। विकास के लिए नौ साल का समय ज्यादा नहीं है, लेकिन आधुनिक तकनीकी के दौर में इसे कम भी नहीं माना जाना चाहिए। इस अवधि में यदि अग्रणी राज्यों की कतार में शामिल नहीं हो पाए तो कम से कम विकास दर में राष्ट्रीय औसत के करीब रहने पर कुछ संतोष अवश्य किया जा सकता था। नए राज्यों के पीछे जनता में विकास की तीव्र उत्कंठा छिपी है। इस मामले में तीन राज्यों के गठन का प्रयोग सवाल भी खड़े करता है। देश में छोटे राज्यों की पैरवी की जा रही है। इस दिशा में नया माहौल तैयार हो रहा है। ऐसे में नवगठित और छोटे राज्यों की जवाबदेही बढ़ जाती है। विकास को लेकर उन्हें अपनी प्रतिबद्धता साबित करनी होगी। अन्यथा छोटे राज्य के गठन के औचित्य पर ही अंगुली उठने लगें तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए तो युवाओं के साथ मातृशक्ति ने भी पूरी ताकत झाोंक दी थी। इसके बावजूद अभी तक राज्य आत्म निर्भरता और विकास की ठोस बुनियाद रखने में कामयाबी से दूर है। इस पर भी ध्यान देने की जरूरत है कि उत्तराखंड राज्य विकास के बजाए राजनीतिक हलचलों के लिए सुर्खियों में ज्यादा रहा। ऐसे में जन आकांक्षा राजनीतिक स्वार्थ की भेंट चढ़े और निहित स्वार्थों की इस लड़ाई में भ्रष्टाचार मजबूती से पांव जमाने में कामयाब हो तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए।

-कण्वाश्रम : समृद्ध सभ्यता का मौन साक्षी

-अस्सी के दशक में प्रकृति ने दिए थे मालिनी घाटी सभ्यता के संकेत -जमीं में दफन हैं खजुराहो मंदिर शैली से मिलती-जुलती मूर्तियां व स्तंभ -10वीं से 12-वीं सदी के मध्य की हैं कण्वाश्रम में मिली मूर्तियां कोटद्वार महर्षि कण्व की तपस्थली व देश के नामदेव चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली ऐतिहासिक कण्वाश्रम भले ही अपनी पहचान का मोहताज है, लेकिन यह जमीं स्वयं में इतिहास को समेटे हुए है। इतिहासकारों की मानें, तो कण्वाश्रम ही नहीं, पूरी मालन घाटी पुरातात्विक दृष्टि से बेहद अहम है। यहां प्राचीन समृद्ध सभ्यता का इतिहास भी दफन है। उल्लेखनीय है कि लंबे समय तक चले शोध के बाद उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री डा. संपूर्णानंद ने वर्ष 1954 की बसंत पंचमी पर पौड़ी जनपद के कोटद्वार नगर स्थित कण्वाश्रम को देश के नामदेव चक्रवर्ती सम्राट भरत की जन्मस्थली के रूप में प्रामाणिक करार दिया था। इसके तहत यहां राजा दुष्यंत के पुत्र भरत व कण्वाश्रम से जुड़ी जानकारियों को लेकर शिलान्यास भी किया था। इसके बावजूद कण्वाश्रम आज भी अपनी पहचान को मोहताज है। स्थिति यह है कि कण्वाश्रम व उसके आसपास के क्षेत्र स्वयं में मालिनी घाटी की पूरी सभ्यता को समेटे हैं, लेकिन इस ओर किसी का ध्यान नहीं जा रहा है। जानकारों के अनुसार, अस्सी के दशक में कण्वाश्रम क्षेत्र में बरसाती नाले ने भयंकर तबाही मचाई और जब नाले का प्रकोप शांत हुआ तो जमीं पर फैली नजर आई कई पुरानी मूर्तियां व प्रस्तर स्तंभ। प्रशासन को जानकारी मिलने से पहले ही स्थानीय ग्रामीण कई मूर्तियों व स्तंभों को साथ लेकर चलते बने। बाद में प्रशासन ने मौके से मिली कुछ मूर्तियों व स्तंभों को कण्वाश्रम स्थित स्मारक में रख दिया। तत्कालीन समाचार पत्रों में छपी खबर के आधार पर गढ़वाल विवि के प्राचीन इतिहास, संस्कृति के पुरातत्व विभाग की टीम ने प्रशासन से वार्ता कर पत्थर की तीन मूर्तियों व दो स्तंभों को अपने संग्र्रहालय में रख दिया। जांच में पता चला कि उक्त मूर्तियां व स्तंभ 10वीं व 12वीं शताब्दी के थे। गढ़वाल विवि के पुरातत्व विभाग ने कण्वाश्रम में मिली मूर्तियों व स्तंभों को जिस काल का बताया है, उस काल में उत्तराखंड में कत्यूरी वंश का एकछत्र साम्राज्य था। इसी दौर में मध्य भारत में चंदेल राजाओं ने खजुराहो के मंदिर बनाए थे। इतिहासविदों के मुताबिक, कण्वाश्रम में मिली मूर्तियां व स्तंभों की निर्माण शैली खजुराहो में बने मंदिरों की शैली से काफी मिलते-जुलते हैं। उनके मुताबिक, यदि मालन घाटी को खंगाला जाए, तो खजुराहो के समान मंदिरों की श्रृंखला भी मिल सकती है। माना जाता है कि सदियों पूर्व मालिनी नदी के तट पर बसी यह सभ्यता मालन नदी में उसी तरह समा गई होगी, जैसे सिंधु व नर्मदा घाटी सभ्यताएं। इतिहास में इस बात का भी जिक्र है कि 10वीं सदी में उत्तर भारत में मोहम्मद गजनी के भीषण नरसंहार से त्रस्त काष्ठ, मृतिका, धातु, शिला की प्रतिमाओं के निर्माताओं को कत्यूरी नरेशों ने शरण दी थी। बाद में इन कलाकारों ने उत्तराखंड में भव्य मंदिरों व प्रतिमाओं की रचना की। गढ़वाल विवि पुरातत्व विभाग के विभागाध्यक्ष डा.बीएम खंडूड़ी ने बताया कि यदि इस क्षेत्र में उत्खनन किया जाए, तो न सिर्फ एक समृद्ध सभ्यता के प्रमाण मिलेंगे बल्कि, कण्वाश्रम राष्ट्रीय/ अंतर्राष्ट्रीय पटल पर भी आ जाएगा। क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी बीपी बडोनी ने भी स्वीकारा कि कण्वाश्रम व उसके आसपास के क्षेत्र इतिहास समेटे हैं, लेकिन क्षेत्र में संग्रहालय न होने के कारण इसकी खोज नहीं हो पा रही है। उधर, क्षेत्रीय विधायक शैलेंद्र सिंह रावत ने बताया कि कण्वाश्रम के विकास हेतु तैयार की गई योजनाओं में यहां संग्रहालय निर्माण किया जाना भी प्रस्तावित है। उन्होंने बताया कि इस संबंध में शासन को प्रस्ताव भेजा गया है।

-जौनसार बावर: यहां मेहमान है भगवान

जौनसार-बावर में आज भी कायम है 'अतिथि देवो भव:' की पंरपरा एक परिवार का अतिथि होता है पूरे गांव का मेहमान हंसी-खुशी का एक पल भी गंवाना नहीं चाहते क्षेत्र के लोग आधुनिक दौर में भी जनजाति क्षेत्र में अतिथि देवो भव: की परंपरा कायम है। जौनसार-बावर का जिक्र होते ही जेहन में एक ऐसे सांस्कृतिक परिवेश वाले पर्वतीय क्षेत्र की तस्वीर कौंधती है जो बाकी दुनिया से बिल्कुल अलग है। खान-पान, रहन-सहन व वेशभूषा ही नहीं, बल्कि यहां के लोगों के जीने का अंदाज भी जुदा है। मेहमानों को सिर माथे पर बिठाना क्षेत्र की संस्कृति है। तीज त्योहार से लेकर खुशी का एक पल भी यहां के लोग गंवाना नहीं चाहते। तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य में भी क्षेत्र की संस्कृति कायम है। साढ़े तीन सौ से अधिक संख्या वाले गांवों का यह जनजाति क्षेत्र अनूठी सांस्कृतिक पहचान की वजह से देश-दुनिया के लिए जिज्ञासा का विषय है। प्राकृतिक खूबसूरती, सुंदर पहाडिय़ां और संस्कृति व धार्मिक परिवेश जिज्ञासुओं को बरबस अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां की संस्कृति का एक बड़ा अध्याय अनछुआ रहा है। जमीनी हकीकत देखने से क्षेत्र को लेकर बाहरी दुनिया में व्याप्त भ्रांतियां शीशे पर जमीं गर्द की तरह साफ हो जाती हैं और तस्वीर उभरती है, उन सीधे-सादे लोगों की जो आज के दौर में भी मेहमान को भगवान का रूप मानते हैं। गांव में एक परिवार का अतिथि पूरे गांव का अतिथि होता है। मेहमाननवाजी तो कोई जौनसार-बावर के लोगों से सीखे। परंपरानुसार घर की महिलाओं द्वारा मेहमानों को घर में आदर पूर्वक बैठाकर हाथ व पैर धुलाए जाते हैं। घर आए मेहमान के लिए तरह-तरह के पारंपरिक व्यजंन व लजीज पकवान बनाए जाते हैं। मेहमानों की खातिरदारी में क्षेत्र के लोग कोई कोर कसर बाकी नहीं छोड़ते। हर स्थिति में हंसते-गाते रहना यहां के लोगों की विशेषता है। प्रसिद्ध समाजसेवी मूरतराम शर्मा का कहना है कि आज के दौर में कहीं पर भी ऐसी संस्कृति देखने को नहीं मिलती है। उनका कहना है कि मौजूदा समय में लोग मेहमानों को छोडि़ए, परिजनों तक से दूरी बनाने लगे हैं। इसके अलावा होली, रक्षाबंधन, जातर व नुणाई आदि त्योहार भी धूमधाम से मनाए जाते हैं। हालांकि शिक्षा के प्रचार-प्रसार के बाद क्षेत्र में काफी बदलाव आया है, पर लोगों का आज भी अपनी माटी-संस्कृति से जुड़ाव बरकरार है। मेहमानों के लिए व्यंजन त्यूणी: मेहमानों के लिए पारंपरिक व्यंजनों में चावल, मंडुवे व गेंहू के आटे के सीढ़े, अस्के, पूरी, उल्वे व पिन्नवे आदि खासतौर से बनाए जाते हैं। इसके अलावा मांसाहारी मेहमानों के लिए मीट, चावल व रोटी आदि बनाया जाता है।

चिपको आंदोलन का दूसरा नाम बचनी देवी

-अपने ही परिवार का झोलना पड़ा विरोध -ठेकेदारों के हथियार छीन, पेड़ों पर बांधी राखियां चम्बा(टिहरी): विश्व प्रसिद्ध चिपको आंदोलन के कार्यकर्ताओं में भले ही पुरुष कार्यकर्ताओं के नाम लोग अधिक जानते हैं, लेकिन इस आंदोलन में महिलाओं की भूमिका भी कम नहीं है। हालांकि, महिलाओं में गौरा देवी या सुदेशा बहन को ही लोग अधिकतर जानते हैं, लेकिन ऐसी कई महिलाओं ने इस आंदोलन के प्रसार में अपनी पूरी ताकत झाोंक दी थी, जिन्हें अब तक पर्याप्त सम्मान या पहचान नहीं मिल पाई है। टिहरी जिले के हेंवलघाटी क्षेत्र के अदवाणी गांव की बचनी देवी भी उन महिलाओं में एक है, जिन्होंने चिपको आंदोलन (पेड़ों को कटने से बचाने के लिए ग्रामीण उनसे चिपक जाते थे, इसे चिपको आंदोलन नाम दिया गया) में महत्वपूर्ण योगदान दिया। बचनी देवी का जन्म अगस्त 1929 में पट्टी धार अक्रिया के कुरगोली गांव में हुआ। उनकी शादी अदवाणी गांव निवासी बख्तावर सिंह के साथ हुई। 30 मई 1977 को जब चिपको नेता सुंदरलाल बहुगुणा, धूम सिंह नेगी और कुंवर प्रसून अदवाणी पहुंचे, तो वहां वन निगम के ठेकेदार पेड़ों पर आरियां चला रहे थे। बहुगुणा, नेगी व प्रसून के आह्वान पर बचनी देवी गांव की महिलाओं को साथ लेकर आंदोलन में कूद पड़ी। उन्होंने पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों के हथियार छीन लिए और उन्हें वहां से भगा दिया। उस दौर में गांव के अधिकांश लोग पेड़ों के कटान के समर्थक थे, क्योंकि वन विभाग द्वारा गठित श्रमिक समितियां ठेकेदारों के माध्यम से कार्य करती थी और लोग इसे रोजगार के रूप में देखते थे। बचनी देवी से जुड़ा सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि उनके पति बख्तावर सिंह खुद निगम के लीसा ठेकेदार थे। ऐसे में बचनी देवी ने साहस और सूझाबूझा से परिवार का विरोध भी झोला और आंदोलन में भी भागेदारी की। पति के अलावा परिवार के अन्य सदस्य भी जंगल कटने के समर्थक थे, क्योंकि इससे उनकी आजीविका जुड़ी हुई थी, लेकिन चिपको आंदोलन की विचारधारा को भलीभांति समझाने वाली बचनी देवी ने सार्वजनिक हित को महत्वपूर्ण समझाा। यहां यह भी बता दें कि चिपको आंदोलन की शुरूआत अदवाणी के जंगलों से ही हुई थी। यहां साल भर आंदोलन चला, जिसमें बचनी देवी पूर्ण रूप से सक्रिय रहीं और उन्होंने घर-घर जाकर दूसरी महिलाओं को संगठित व जागरूक किया। खास बात यह है कि सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करने के साथ उसने घर-परिवार की जिम्मेदारी, चूल्हा, चौका, घास-लकड़ी का काम भी बखूबी निभाया। इस दौरान उन्हें अनेक कष्ट भी झोलने पड़े। एक साल के संघर्ष के दौरान ठेकेदारों को खाली हाथ वापस जाना पड़ा तथा इस क्षेत्र में पेड़ों की नीलामी व कटान पर वन विभाग को रोक लगानी पड़ी। बचनी देवी धीरे-धीरे अपने पति व परिवार जनों को समझााने में भी कामयाब रही। आज उनकी उम्र 80 वर्ष है और उन दिनों की याद ताजा कर वह कहती है कि आंदोलन के दौरान कई बार उनके पति उनसे बात तक नहीं करते थे, फिर भी उन्होंने संयम से काम लिया और दोनों मोर्चों पर सफलता पाई। आंदोलन में उनके साथ रहे धूम सिंह नेगी व सुदेशा बहन का कहना है कि उनमें साहस और हिम्मत के कारण अदवाणी की दूसरी महिलाएं भी आंदोलन में शामिल हुई थी। बचनी देवी का आज भरा-पूरा परिवार है। वह चाहती हैं कि लोग अपने संसाधनों के प्रति जागरूक रहें।

-डैम बनने से पहाड़ी क्षेत्रों की खेती में आएगी क्रान्ति

सब-असिंचित क्षेत्रों में बनाये जाएंगे डैम -कुमाऊं के लिए 3.64 करोड़ का पायलट प्रोजेक्ट तैयार ---------------- :::एक डैम, फायदे सिंचाई की समस्या खत्म होगी -मुर्गी व बत्तख पालन करने से लोगों को स्वरोजगार मिलेगा -नेपियर घास के उगने से चारे का संकट भी नहीं रहेगा ,हल्द्वानी: राज्य के पर्वतीय क्षेत्र में खेती जल्द क्रांति लेकर आने वाली है। कृषि विभाग ने बहुद्देश्यीय डैम प्रोजेक्ट बनाने का निर्णय लिया है। इससे किसानों को सिंचाई की समस्या का हल होगा,वहीं जानवरों को चारे के संकट का हल निकल सकेगा। उत्तराखंड में 793241 हेक्टेअर भूमि पर खेती होती है। 454487 हेक्टेअर क्षेत्रफल पर्वतीय है। इसमें राज्य की कृषि योग्य भूमि के 43.72 प्रतिशत क्षेत्रफल में ही सिंचाई की सुविधा है। मैदानी क्षेत्र में गनीमत है, यहां 87.79 प्रतिशत क्षेत्रफल में पानी पहुंच जाता है, जबकि पर्वतीय क्षेत्र की दशा बेहद खराब है। पर्वतीय क्षेत्र के 49417 हेक्टेअर कृषि भूमि में मात्र 10.87 प्रतिशत खेतों में सिंचाई की सुविधा है। बाकी के लिए किसान भगवान का भरोसा ताकते हैैं। दूसरी स्थिति में भूमि खाली पड़ी रहती है। पर्वतीय क्षेत्र में शतप्रतिशत भूमि पर खेती कराने के मकसद से कृषि विभाग का डैम प्रोजेक्ट आने वाला है। इसमें जल स्रोतों के अलावा रेन वाटर हार्वेस्टिंग तकनीक के माध्यम से जल संचय किया जायेगा। इसका उपयोग खेती में होगा। इसके अलावा डैम के कई अन्य लाभ भी होंगे। इसके ऊपर मचान बनाकर मुर्गी व बत्तख का पालन किया जायेगा। इनकी बीट पानी में गिरेगी, वहां मछली पालन होगा और बीट मछलियों का भोजन बनेगी। इसके अलावा डैम के आसपास नेपियर घास लगायी जाये और केले के पौधरोपण होगा। फिलहाल कुमाऊं में 3.64 करोड़ का पायलट प्रोजेक्ट तैयार कर लिया गया है जिसे स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार भेजा जाएगा। इसके तहत पिथौरागढ़, भिकियासैण, रानीखेत, ऊधमसिंह नगर, नैनीताल, हल्द्वानी, लोहाघाट, डीडीहाट, अल्मोड़ा व बागेश्वर में डैम बनाये जाने की योजना है। केंद्र सरकार से हरी झांडी मिलने के बाद योजना शुरू कर दी जायेगी। ::गदरपुर से मिली प्रेरणा:: पर्वतीय क्षेत्र में डैम बनाने की योजना की प्रेरणा गदरपुर से मिली है। बताया जाता है कि भारत सरकार की एक टीम पिछले दिनों जल संरक्षण का जायजा लेने ऊधमसिंह नगर में पहुंची थी। जिले के गदरपुर में बहुद्देशीय डैम की परिकल्पना टीम को बेहद पसंद आयी और टीम ने प्रदेश के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर इसको व्यापक स्वरूप देने को कहा था। इसके तहत ही पर्वतीय क्षेत्रों को अलग प्रोजेक्ट बनाया गया है। :: क्या है नेपियर घास:: कृषि के जानकारों का कहना है कि नेपियर घास दो माह में तैयार हो जाती है। इसे पशु भी काफी पसंद करते हैैं। पर्वतीय क्षेत्र में चारे की समस्या रहती है, जो नेपियर के उगने के बाद काफी हद तक खत्म हो जायेगी।

हरिद्वार से हर्बल गुर सीखेगा नेपाल

-नेपाली राष्ट्रपति के पुत्र-पुत्री पहुंचे पतंजलि योगपीठ -हर्बल फूड पार्क के निर्माण कार्य को देखा -बाबा रामदेव के जनहित कार्यों को सराहा हरिद्वार,: दुनिया के सबसे बड़े पतंजलि हर्बल फूड पार्क का निर्माण हरिद्वार में पूरा हो चुका है। नेपाल के राष्ट्रपति डा. रामबरन यादव ने अपने पुत्र और पुत्री को बाबा रामदेव द्वारा जनहित में किये जा रहे सेवा कार्यो तथा नेपाल में हर्बल फूड पार्क बनाने की संभावना को तलाशने के लिए पतंजलि योगपीठ भेजा। रविवार को नेपाली राष्ट्रपति के पुत्र डा. चंद्र मोहन यादव और पुत्री कुमारी अनीता ने पतंजलि फूड एंड हर्बल पार्क का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने कहा कि यह मेगा फूड पार्क न केवल भारतवर्ष के किसानों के लिए अपितु पूरे विश्व के किसानों के लिए प्रेरणा और उनके रोजगार का एक सशक्त साधन बनेगा। इससे लोगों को स्वस्थ व कृषि उपज पर आधारित उन्नत उत्पाद मिल सकेंगे। दोनों ने स्वामी रामदेव और आचार्य बालकृष्ण द्वारा योग और आयुर्वेद की दिशा में किए जा रहे कार्यों की भी सराहना की। उन्होंने कहा कि योगपीठ के पार्क की तकनीक व यहां उत्पादित विभिन्न औषधि पादपों के बारे में जानकारी लेने के बाद नेपाल में प्रस्तावित फूड पार्क में इनका उपयोग किया जाएगा। इस अवसर पर आचार्य बाल कृष्ण ने कहा कि पतंजलि फूड पार्क से हजारों परिवारों को रोजगार प्राप्त होगा। उन्होंने कहा कि किसानों को उन्नत बीज और खाद्य उपलब्ध कराने की तकनीक के साथ किसानों को समूचे उत्तराखंड में खोले गये केंद्रों पर पतंजलि योगपीठ तकनीकी ज्ञान का प्रशिक्षण भी देगा।

---पांच पुलिसकार्मिकों को पीएम का जीवनरक्षा पदक

-गुजरात में होने वाले समारोह में किया जाएगा सम्मानित देहरादून, उत्तराखंड के पांच पुलिसकार्मिकों को प्रधानमंत्री के जीवनरक्षा पदक के लिए चुना गया है। इन सभी को गांधीनगर गुजरात में होने वाले समारोह में सम्मानित किया जाएगा। पुलिस मुख्यालय से प्राप्त जानकारी के मुताबिक हेड कांस्टेबल आशीष कुमार सिंह ने 22 मई 2008 में एवरेस्ट शिखर फतह करने के दौरान एक वियतनामी पर्वतारोही की जान बचाई। इस पर्वतारोही की आक्सीजन खत्म हो गई थी। आशीष ने तुरंत ही अपने सिलेंडर से उसे आक्सीजन दी। इस कार्य की प्रशंसा ज्वाइंट कमिश्नर ट्रैफिक, अहमदाबाद अतुल कुमार ने भी की थी। इसके अलावा 19 सितंबर 2009 को क्षेत्राधिकारी विकासनगर डा. हरीश वर्मा कां. नरेन्द्र पाल सिंह, रविन्द्र सिंह व गीतम सिंह के साथ रात्रिगश्त पर थे। उसी समय सूचना मिली कि जलालिया पीरघाट, विकासनगर के पास यमुना नदी में भयंकर बाढ़ आ जाने के कारण मजदूर फंस गए हैैं। फंसने वालों में मजदूरों के बच्चे और महिलाएं भी शामिल थींं। इस पर उन्होंने अपनी जान की परवाह न करते हुए बचाव कार्य शुरू किया। यमुना के टापू से 71 बच्चों, 47 महिलाओं और 55 पुरुषों को निकाला गया। उक्त कार्यों पर चारों पुलिसकार्मिकों को प्रधानमंत्री के जीवनरक्षा पदक के लिए चुना गया है। गुजरात पुलिस द्वारा 2 से 9 फरवरी 2010 को गांधीनगर में आयोजित होने वाली 53वीं आल इंडिया पुलिस ड्यूटी मीट के दौरान उन्हें पदक प्रदान किए जाएंगे। पदक के लिए चुने जाने पर डीजीपी सुभाष जोशी ने भी सभी को बधाई दी है। राज्य गठन के बाद दो अधिकारी-कर्मचारी प्रधानमंत्री का जीवनरक्षा पदक प्राप्त कर चुके हैैं, लेकिन यह पहला मौका है जब किसी राज्य के चार पुलिस कर्मियों व एक अधिकारी को एक ही वर्ष में यह पदक मिला हो।

Tuesday 8 December 2009

पहाड़ी मड़ुआ का दीवाना हुआ यूरोप

यहां गरीबों का निवाला वहां अमीरों का स्नेक्स अब बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की नजर उत्तराखण्ड की पैदावार पर अब यूरोप को भी पहाड़ी मड़ुआ का स्वाद रास आ गया है। यही कारण है कि नमकीन बनाने वाली एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी की निगाह अब उत्तराखण्ड में मडुआ की पैदावार पर है। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में गरीबों का मुख्य निवाला मडुआ ही रहा है। मडु़आ की रोटी भले ही काले रंग रंग की दिखती हो पर इसके स्वाद व पोषक तत्व के बूते इसने यूरोप के बाजार में भी जगह बना ली है। मगर हैरत की बात यह है कि जहां की यह पैदावार हैं उस क्षेत्र में आज तक व्यवसायिक उपयोग नहीं किया जा सका। बताते हैं कि एक मल्टीनेशनल कम्पनी ने महराष्ट्र व गुजरात में पैदा होने वाले मडुआ (वहां का स्थानीय नाम-नाचनी) के चिप्स, नमकीन, मठरी आदि का निमार्ण कर जब विदेशी बाजार में उतारा तो वहां के लोग इसके स्वाद के दीवाने हो गये। यही कारण है कि अब उत्तराखण्ड में मडुआ की पैदावार पर विदेशी कम्पनियों की नजर गई है। नमकीन बनाने वाली मुम्बई की मल्टीनेशनल कम्पनी सावंत स्नेक्स के प्रतिनिधि राकेश बंदोपाध्याय इन दिनों नैनीताल जिले में मडुआ का प्रबंधन करने आये हैं। वे गांवों में पहुंच कर ग्रामीणों को पैदावार बढ़ाने के प्रति प्रेरित करने के अलावा उनके पास उपलब्ध मडुआ खरीद भी रहे हैं। समाज कल्याण विभाग में अपने एक जानने वाले के माध्यम से गांवों तक पहुंच बना रहे श्री बंदोपाध्याय ने बताया कि मडुआ के स्नेक्स की मांग विदेशों में काफी बढ़ी है। इसकी पैदावार बढ़ाकर किसानों के सामने अब अच्छी कमाई का रास्ता खुल गया है। उन्होंने बताया कि मडुआ स्वास्थ्य के दृष्टि से भी उत्तम है इसी कारण विदेशों में चाव से खाया जा रहा है। इसमें 71 फीसदी कार्बोहाइड्रेड, 12 फीसदी प्रोटीन तथा 5 फीसदी वसा पाया जाता है। साथ ही फाइबर की मात्रा अधिक होने के कारण मडुआ से कैलौरी अधिक मिलती है।

-यहां बर्तन नहीं पत्थरों पर होता है भोजन

-चमोली जिले में हर साल जेठ (जून) महीने में होता है उफराईं देवी की डोली यात्रा का आयोजन -यात्रा के दौरान मौडवी नामक स्थान पर पत्थर पर दिया जाता है प्रसाद गोपेश्वर(चमोली)-गढ़वाल न सिर्फ देवभूमि के रूप में जाना जाता है, बल्कि यहां की रीतियों व परंपराओं की विशिष्टताओं के चलते इसे खास पहचान भी हासिल है। ऐसी ही एक अनूठी परंपरा के तहत नौटी-मैठाणा गांव के लोगों सहित मौडवी में उफराईं देवी की डोली यात्रा में भाग लेने वाले श्रद्धालु प्रसाद के रूप पका भोजन बर्तनों या पत्तलों में नहीं, बल्कि पत्थरों पर खाते हैं। उल्लेखनीय है कि क्षेत्रीय भूमियाल उफराईं देवी की डोली यात्रा हर वर्ष जेठ के महीने मैठाणी पुजारियों द्वारा निर्धारित शुभ दिन पर आयोजित की जाती है। इसके तहत ग्रामीण देवी की डोली को गांव के उत्तर-पश्चिम में ऊंची चोटी पर स्थित उफराईं के स्थान तक ले जाते हैं। यात्रा में श्रद्धालुओं की भारी भीड़ जुटती है। नौटी-मैठाणा गांव स्थित मंदिर से लगभग छह हजार फीट से अधिक की ऊंचाई पर स्थित उफरांई ठांक (स्थान) में स्थित मंदिर तक जाते हुए रास्ते में मौडवी नामक स्थान पर श्रद्धालुओं के लिए सामूहिक भोज तैयार किया जाता है। यहां से ठांक स्थित मंदिर में देवी के लिए भोग ले जाया जाता है। मंदिर में देवी को भोग लगाने व पूजा- अर्चना के बाद श्रद्धालु डोली के साथ वापस मौडवी आते हैं। यहां देवी के प्रसाद के रूप में तैयार दाल- चावल को शुद्धिकरण व देवी की डोली द्वारा परिक्रमा के बाद श्रद्धालुओं में बांटा जाता है। खास बात यह है कि भक्त इस प्रसाद को बर्तनों या पत्तलों पर नहीं, बल्कि पत्थरों पर रखकर खाते हैं। उल्लेखनीय है कि मुख्यालय से लगभग सत्तर किलोमीटर की दूरी पर तहसील कर्णप्रयाग के चांदपुर पट्टी स्थित ऐतिहासिक गांव नौटी-मैठाणा में भूमियाल उफराईं देवी का प्राचीन मन्दिर है। प्राचीनकाल में मंदिर के रखरखाव के लिए हिन्दू राजाओं ने गूंठ (महान मंदिरों के लिए स्वीकृत भूमि-राजस्व) का प्रावधान भी किया था। इस ऐतिहासिक मन्दिर में स्थापना के बाद से ही नित्य सुबह-शाम की पूजा अनवरत रूप से होती चली आ रही है। मंदिर के पुजारी भुवन चन्द्र व मदन प्रसाद ने बताया कि यह परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। उन्होंने बताया कि भूमियाल होने के चलते गांव के सभी घरों में किसी भी शुभ कार्य के आयोजन से पूर्व देवी मां की पूजा के लिए विशेष प्रावधान है। ग्रामीण पंकज कुमार ने बताया कि जून के महीने देवी की डोली यात्रा सांस्कृतिक विरासत होने के साथ-साथ वर्तमान में पर्यटन की दृष्टि से भी अनुकूल है। उनका कहना है कि वर्ष में एक बार देवी मां का प्रसाद पत्थर में खाने के लिए गांव के लोगों सहित बाहर नौकरी कर रहे ग्रामीण भी पहुंचते हैं। विशेष रूप से बच्चों व युवाओं को इस दिन का खासा इंतजार रहता है, क्योंकि उनके लिए यह अलग अनुभव होता है।

Saturday 5 December 2009

-नौटियाल होंगे राज्य के पहले सूचना आयुक्त

सीएम की अध्यक्षता वाली कमेटी ने लगाई नाम पर मुहर राज्य सूचना आयोग में सूचना आयुक्तों की नियुक्ति को कवायद तेज हो गई है। नैनीताल हाईकोर्ट के एडीशनल एडवोकेट जनरल विनोद चंद्र नौटियाल राज्य के पहले सूचना आयुक्त होंगे। राज्य सूचना आयोग अभी तक मुख्य सूचना आयुक्त डा. आरएस टोलिया के सहारे ही चल रहा है। आयोग में दस सूचना आयुक्तों की नियुक्ति भी होनी है। इस दिशा में काम आगे नहीं बढ़ पा रहा था। आज मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली कमेटी ने नए सूचना आयुक्तों पर मंथन किया। बीजापुर गेस्ट हाउस में मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक, नेता प्रतिपक्ष डा. हरक सिंह रावत और काबीना मंत्री बिशन सिंह चुफाल ने इस मुद्दे पर दो घंटे तक मंथन किया। सूत्रों ने बताया कि इस बैठक में विनोद चंद्र नौटियाल के नाम पर सहमति बन गई है। श्री नौटियाल नैनीताल हाईकोर्ट में बतौर एडीशनल एडवोकेट जनरल काम कर रहे हैैं। सूत्रों ने बताया कि कमेटी ने तीन अन्य नामों पर भी विचार किया पर बाद में तय किया गया कि फिलहाल एक ही आयुक्त की तैनाती की जाए। --

-परिवहन: तीन राज्यों से समझाता, अन्य से वार्ता-परिवहन: तीन राज्यों से समझाता, अन्य से वार्ता

-परिवहन निगम को लाभ में लाने की कवायद -जेएनएनयूआरएम के तहत मिली बीस बसों का ट्रायल बाकी देहरादून: बसों के संचालन तथा रूट को लेकर उत्तराखंड परिवहन निगम का तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान व पंजाब के साथ समझाौता हो गया है। चार राज्यों के साथ बातचीत चल रही है। यूपी व दिल्ली के साथ मामला सैद्धांतिक सहमति तक पहुंच चुका है। उत्तराखंड परिवहन निगम को लाभ में लाने के तहत पड़ोसी राज्यों के परिवहन निगमों से समझाौते की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई थी, उसके नतीजे आने लगे हैैं। उत्तराखंड परिवहन निगम का राजस्थान, मध्य प्रदेश तथा पंजाब के साथ बस संचालन तथा रूट को लेकर समझाौता हो गया है। उत्तर प्रदेश के साथ सचिव स्तर पर बातचीत हो गई है और समझाौते के प्रारूप पर सैद्धांतिक सहमति बनी है। अब समझाौते पर हस्ताक्षर होने बाकी हैैं। हिमाचल के साथ समझाौते को लेकर अभी एक चरण की बातचीत और होनी है। दोनों राज्यों के बीच कुछ मामलों में सहमति नहीं बन पाई है। दिल्ली के साथ समझाौते पर बातचीत तभी शुरू होगी, जबकि यूपी के साथ मसले को हरी झांडी मिल जाए। हरियाणा के साथ समझाौते के लिए नये सिरे से प्रक्रिया शुरू होनी है। अपर सचिव परिवहन विनोद शर्मा ने बताया कि यूपी व दिल्ली से जल्द समझाौते को अंतिम रूप दे दिया जाएगा, जबकि हिमाचल के साथ चंद मसलों पर फिर से सुनवाई होनी है। इन समझाौतों से निगम के बसों से संचालन को लेकर पूर्व में बने गतिरोध समाप्त हो जाएंगे। उन्होंने बताया कि जेएनएनयूआरएम के तहत नैनीताल, देहरादून व हरिद्वार के लिए निगम को 145 बसें मिलनी हों। बीस बसों की डिलीवरी हो गई है, जबकि साठ बसें टाट के डिपो में हैैं। अभी इन बसों का ट्रायल नहीं हुआ है।

यहां तो औसत से अधिक हैं कर्मी

इसके बाद भी दक्षता के मामले में पिछड़ रहा उत्तराखंड , देहरादून उत्तराखंड में राष्ट्रीय औसत से दोगुने कर्मचारी हैं। अगर बात दक्ष कार्मिकों की करें तो यहां उत्तराखंड काफी पीछे छूट जाता है। कहा जा रहा है कि राज्य के विकास में पिछडऩे और योजनाओं का सही रूप में क्रियान्वयन न हो पाने की यह भी वजह हो सकती है। सरकार के पास मौजूद आंकड़ों के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर देश की कुल आबादी का एक प्रतिशत ही सरकारी कार्मिक हैं। बात उत्तराखंड की करें तो यहां ये अनुपात दो फीसदी है। उत्तर प्रदेश में आबादी के मुकाबले कार्मिकों की संख्या मात्र 0.5 प्रतिशत है। इस तरह उत्तराखंड कार्मिकों की संख्या के मामले में राष्ट्रीय औसत से दो गुना आगे है, जबकि उत्तर प्रदेश की तुलना में चार गुना आगे है। दूसरी तरफ तकनीकी रूप से दक्ष कार्मिकों की संख्या के मामले में उत्तराखंड काफी पीछे छूट जाता है। जानकारों का कहना है कि कुल कार्मिकों में से 15 प्रतिशत तकनीकी रूप से दक्ष होने चाहिए। उत्तराखंड में ऐसे दक्ष कार्मिकों की संख्या महज पांच फीसदी पर ही सिमट गई है। एक तरफ कार्मिकों की औसत से अधिक संख्या, दूसरी तरफ दक्षता में औसत से कम होना, सरकारी कामकाज को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। शायद यही वजह है कि उत्तराखंड में सरकारी योजनाओं का सही क्रियान्वयन नहीं होने की शिकायतें बढ़ती जा रही हैं। खास बात यह है कि इस समय उत्तराखंड के समस्त आर्थिक संसाधन इन कार्मिकों के वेतन भत्तों पर ही खर्च हो रहे हैं। इस बारे में प्रमुख सचिव (कार्मिक) शत्रुघ्न सिंह का कहना है कि छोटे राज्यों में कार्मिकों की संख्या अधिक हो ही जाती है। छोटे और बड़े राज्यों में विभाग का ऊपरी ढांचा लगभग समान होता है। ऐसे में छोटे राज्यों में यह औसत गड़बड़ाया दिखाई देता है। दक्ष कार्मिकों की संख्या बढ़ाने के संबंध में श्री सिंह का कहना है कि इस बारे में देखना होगा। अभी ऐसे कोई प्रयास राज्य में नहीं हो रहे हैं।

-सफर में खिल रहीं जीवन की कलियां

-सफर में खिल रहीं जीवन की कलियां - जिसे विपदा का नाम दिए, उसी ने घर-आंगन महकाए - मुल्क के लिए 'सुरक्षा कवच' भी तैयार कर रही 108 सेवा 'आम' से 'खास' हुए 108 में जन्म लेने वाले नए मेहमान देहरादून: भले ही उसे विपदा में याद किया जाता हो, लेकिन सबब वह खुशहाली का है। असुविधा, गरीबी और पहाड़ की कठिन जीवनशैली के बीच वह अब तक एक हजार से अधिक घर-आंगन महका चुका है। उसकी घरघराहट के बीच ही गूंजने लगती हैं किलकारियां और कुछ पलों के लिए सही, सारे कष्ट काफूर हो जाते हैं। बड़ी बात तो यह कि वह मुल्क के लिए 'सुरक्षा कवच' भी तैयार कर रहा है। यही नहीं, चलते-चलते जन्म लेने वाले नये मेहमान अब 'खास' भी बनने जा रहे हैं। उसकी इन्हीं खूबियों ने उसे हर किसी का चहेता बना दिया है। स्वास्थ्य सुविधा का अभाव झोलते उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों के लिए वरदान बनी 'पं. दीनदयाल उपाध्याय देवभूमि 108 आपातकालीन सेवा' का यह सफर अनवरत जारी है। 18 माह के शैशवकाल में ही राज्यभर में करीब सवा लाख लोगों के जख्मों पर मरहम लगाने और ढाई हजार लोगों के जीवन को बचाने वाली यह सेवा चालीस हजार से अधिक माताओं को सुरक्षित प्रसव के लिए अस्पताल पहुंचाने में भी अहम भूमिका निभा चुकी है। बात आपदा पीडि़तों की हो या फिर प्रसव वेदना झोल रही धात्री की, उन्हें तुरंत राहत पहुंचाने के लिए सूबेभर में दौडऩे वाली इस सेवा की सभी सुविधाओं से लैस 90 एंबुलेंस हर वक्त तत्पर रहती हैं। इधर फोन की घंटी घनघनाई और उधर एंबुलेंस फर्राटे भरने लगती हैं। फिर चाहे राह कितनी भी पथरीली क्यों न हो। सूबे में 108 सेवा की इन्हीं एंबुलेंस में अब तक चलते-चलते 1015 बच्चे जन्म ले चुके हैं। उत्तरकाशी, पौड़ी, अल्मोड़ा, देहरादून जनपदों में तो सौ-सौ बच्चों ने इन्हीं एंबुलेंस में आंखें खोली। इस सेवा के अस्तित्व में आने के बाद सूबे में संस्थागत प्रसव बढऩे से जन्म-मृत्यु दर में भी कमी आई है। बड़ी बात यह कि सैनिक बहुल उत्तराखंड में यह सेवा देश के लिए 'सुरक्षा दीवार' भी तैयार कर रही है। एक अनुमान के मुताबिक पहाड़ में पैदा होने वाला हर पांचवां बच्चा देश सेवा के लिए सेना में है। ऐसे में 108 सेवा भविष्य के स्वस्थ सैनिकों की खेप भी तैयार कर रही है। इस सबको देखते हुए यह सेवा आमजन के साथ ही सरकार की भी चहेती बन गई है। सरकार ने भी 108 सेवा की एंबुलेंस में जन्मे लेने वाले बच्चों पर इनायत बख्शी है। घोषणा की गई है कि इन बच्चों की शिक्षा के साथ ही उन्हें रोजगार देने के मामले में प्राथमिकता दी जाएगी। यानी ये बच्चे 'आम' से 'खास' होने वाले हैं, जिसका उन्हें भान भी नहीं है। अच्छा हो कि सरकार अपनी इस घोषणा को भूले नहीं और भविष्य में इसे अमलीजामा पहनाए। 108 सेवा की एंबुलेंस में जन्मे बच्चे जिला संख्या उत्तरकाशी 103 पौड़ी 100 देहरादून 98 टिहरी 87 हरिद्वार 84 चमोली 49 रुद्रप्रयाग 34 अल्मोड़ा 100 ऊधमसिंहनगर 90 नैनीताल 73 पिथौरागढ़ 56 चंपावत 51 बागेश्वर 33 (स्रोत: 108 सेवा। सूची में वे 57 बच्चे शामिल नहीं हैं, जिनका डाटा पूर्व में फीड नहीं हो पाया था)

महाकुंभ: गुम होने पर भी मिल जाएगा 'लाडला'

-मेला क्षेत्र में गुमशुदा बच्चों को ढूंढने को पुलिस लेगी तकनीक का सहारा -आतंकी व असामाजिक तत्वों की धरपकड़ को भी अपनाएगी पुलिस फार्मूला हरिद्वार: महाकुंभ का शाही स्नान और अचानक भीड़ में आपका 'लाडला' आपसे बिछड़ जाए। लाखों की भीड़ में आखिर उसे ढूंढें भी तो कहां। पुलिस ने माइक से बच्चे का हुलिया बताने के बजाय लोगों से अपने मोबाइल फोन देखने को कहा है। घबराइए मत पुलिस आपके साथ कोई मजाक नहीं कर रही, बल्कि बच्चे को खोजने के लिए आधुनिक तकनीक का सहारा लिया जा रहा है। कुंभ में बच्चों के खोने की घटनाओं के बाद मेला पुलिस आधुनिक जीपीआरएस सिस्टम का सहारा लेगी। आतंकी या असामाजिक तत्वों की धरपकड़ के लिए भी यही रणनीति होगी। सुरक्षा की दृष्टि से महाकुंभ को सकुशल निपटाना पुलिस के लिए किसी चुनौती से कम नहीं है। इसके लिए सुरक्षा व खोजबीन को आधुनिक तकनीक का सहारा लिया जाना आवश्यक हो गया है। आपने फिल्मों में ऐसे दृश्य तो जरूर देखे होंगे जिनमें मेले के दौरान बच्चा मां-बाप से बिछुड़ जाता है। कई बार असल जिदंगी में भी ऐसा ही हो जाता है। इस बार कुंभ में मेला पुलिस बच्चों के गुम होने की घटनाओं को लेकर अतिरिक्त सतर्क है। ऐसी स्थिति में अब तक केवल माइक से बच्चे का हुलिया बता पुलिस अपना पल्ला झााड़ लेती थी। लेकिन इस बार आधुनिक तकनीक का प्रयोग कर बच्चों को बरामद करने का प्रयास किया जाएगा। दरअसल, कुंभ क्षेत्र में पुलिस जीपीआरएस सिस्टम लगाएगी। बच्चे के गुम होने की स्थिति में पुलिस उन सभी लोगों से अपने मोबाइल फोन खोलने को कहेगी जिनके मोबाइल पर ब्लू-टूथ की सुविधा होगी। ब्लू-टूथ खोलने के साथ ही आपके मोबाइल पर गुमशुदा बच्चे की तस्वीर आ जाएगी और आपको उसके बारे में पूरी जानकारी मिल जाएगी। इस तकनीक का प्रयोग केवल बच्चों के गुम होने की दशा में नहीं, बल्कि आतंकवादी या किसी असामाजिक तत्व की धरपकड़ के लिए भी किया जाएगा। वैसे भी पुलिस की असली चिंता कथित आतंकी हमले व असामाजिक तत्वों को लेकर है। मेला डीआईजी आलोक शर्मा का कहना है कि सुरक्षा को लेकर हर प्रकार की सतर्कता बरती जा रही है। आधुनिक तकनीक भी इसलिए इस्तेमाल की जा रही है क्योंकि वर्तमान में अधिकांश लोगों के पास अत्याधुनिक सुविधाओं वाले फोन हैं। ऐसे में उन्होंने उम्मीद जताई कि पुलिस का यह प्रयास सफल होगा। उन्होंने बताया कि मेला क्षेत्र में तकनीकी संचालन के लिए पांच 'ब्लू-5' मशीन लगा दी गई हैं और ऐसी कुल 12 मशीनें लगेंगी।

-गुरुकुल कांगड़ी: दिखेंगे अनूठे हिमालयी पत्थर

पुरातत्व विभाग ने सहेजा हिमालय क्षेत्र के पत्थरों को -सौ अलग-अलग तरह के पत्थर होंगे गैलरी में -23 दिसंबर से देशी-विदेशी दर्शक देख पाएंगे पत्थर हरिद्वार,: हिमालयी क्षेत्र में पग-पग पर जड़ी-बूटियों के साथ ही बेशकीमती पत्थर भी बिखरे पड़े हैं। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय का पुरातत्व विभाग ऐसे ही अनूठे पत्थरों को सहेजने का कार्य कर रहा है। विभाग के म्यूजियम में ऐसे सौ से अधिक पत्थर रखे हैं, जो विभिन्न आकृतियों के हैं। साथ ही वर्षों पुराने हैं। 23 दिसंबर से दर्शकों के लिए म्यूजियम खोला जाएगा। कांगड़ी गांव में गुरुकुल कांगड़ी विवि की 1902 में स्थापना के बाद से ही यहां का पुरातत्व विभाग धरोहरों को सहेजने का कार्य कर रहा है। यहां कई विश्व धरोहरों के साथ ही अब उच्च व मध्य हिमालयी क्षेत्र में पाए जाने वाले बेशकीमती पत्थर आगंतुक देशी-विदेशी पर्यटक देख पाएंगे। विभाग ने सौ से अधिक ऐसे अनूठे पत्थरों को सहेजा है, जो केवल हिमालयी क्षेत्र में पाए जाते हैं। साथ ही उनका अपना पुरातात्विक महत्व है। ऐसे पत्थरों को सर्वे आफ इंडिया देहरादून भेजकर उनके स्थान और वैज्ञानिक नाम रखे गए। इसमें कई मणिनुमा पत्थर से लेकर मार्बल पत्थर शामिल हैं। इनमें से कई पत्थरों को पूर्व में गुरुकुल में पढऩे वाले छात्रों द्वारा एकत्रित किया गया। इन पत्थरों का प्रयोग भूगोल के छात्रों को भू-आकृति विज्ञान का ज्ञान देने के लिए भी किया जाता रहा है। पुरातत्व विभाग म्यूजियम प्रभारी प्रभात कुमार ने बताया कि 23 दिसंबर से इन पत्थरों को म्यूजियम की गैलरी में रखा जाएगा। साथ ही इन दिनों म्यूजियम को नया लुक दिया जा रहा है। इसके अतिरिक्त म्यूजियम में हिमालय क्षेत्र के कई अनूठे शिल्प भी आगंतुक देख पाएंगे। उप प्रभारी दीपक घोष ने बताया कि हिंदू कैलेंडर के अनुसार 12 महीनों में होने वाले त्योहारों-पर्व से संबंधित पेंटिंग यहां लगाई गई है। जैसे श्रावण मास में झाूले की महत्ता, कार्तिक माह में कहानी सुनाने व इसी प्रकार शेष महीनों में परंपरा अनुसार होने वाले कार्यों को पेंटिंग पर उकेरा गया है। बहरहाल, पुरातत्व विभाग की गैलरी में दर्शक अब अनूठे पत्थर देखकर हिमालयी क्षेत्र में होने का अहसास करने के साथ वहां पग-पग पर बिखरे रहस्यों को समझा पाएंगे।

हर बार जुड़वा बच्चे पैदा करती है 'बरबरी'

-पहाड़ी बकरी का विकल्प बनेगी बरबरी नस्ल -पशुपालन विभाग को मिली 1.34 करोड़ की धनराशि गोपेश्वर (चमोली) बकरी की एक ऐसी नस्ल है, जो हर बार जुड़वा बच्चों को ही जन्म देती है। यह बात पढऩे में बेतुकी लग रही होगी, लेकिन है सोलह आने सच। बकरी की इस प्रजाति को 'बरबरी' कहा जाता है। पशुपालन विभाग ने बरबरी को पहाड़ी बकरी के विकल्प के रूप में चुना है। इस नस्ल को पहाड़ में चढ़ाने की कवायद सीमांत जनपद चमोली से की जा रही है। यह प्रोजेक्ट ग्वालदम में शुरू किया जाएगा। इसके लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत 1.34 करोड़ की धनराशि स्वीकृत की गई है। उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में बकरी की जो नस्ल पाली जाती है उसे 'हिमालन' या 'चौगरखा' नाम से जाना जाता है। ग्लोबल वार्मिंग व अन्य कारणों से इस प्रजाति की बकरियों की न सिर्फ औसत आयु कम हो गई है बल्कि उनका शरीर का विकास भी पर्याप्त नहीं हो पा रहा है। लिहाजा, कम वजन की पहाड़ी बकरियां पशुपालकों के लिए बहुत अधिक लाभदायक साबित नहीं हो पा रही हैं। ऐसे में पशुपालन विभाग बरबरी प्रजाति की बकरी को पहाड़ी बकरी के विकल्प के रूप में देख रहा है। दरअसल, बरबरी प्रजाति की बकरी यूपी के ऐटा, मैनपुरी, इटावा क्षेत्र में बहुतायत में पाई जाती है। बरबरी का वजन 20 से 25 किलो तक होता है, जबकि पहाड़ी बकरी का वजन 15 से 20 किलो तक ही होता है। बरबरी की विशेषता यह है कि यह साल में दो बार बच्चे पैदा करती है और हर बार जुड़वा बच्चों को ही जन्म देती है। मैदान के गर्म इलाकों के अलावा इसे पहाड़ के ठंडे इलाकों में भी इसे आसानी से पाला जा सकता है। इस संबंध में मुख्य पशु चिकित्साधिकारी डा. पीएस यादव ने बताया कि बकरी प्रजनन प्रक्षेत्र ग्वालदम में 250 बरबरी बकरियां प्रजजन के लिए लाई जाएंगी। इनमें से नर बकरियां राष्ट्रीय बकरी अनुसंधान संस्थान मकदूम मथुरा व मादा बकरियां खुले बाजार से खरीदी जाएंगी। उन्होंने बताया कि इस प्रोजेक्ट के लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत पशुपालन विभाग चमोली को एक करोड़ 34 लाख रुपये प्राप्त हो चुके हैं।

शैक्षिक गुणवत्ता

उत्तराखंड के बुनियादी शिक्षा के नए माडल को राष्ट्रीय स्तर पर मंजूरी मिलना नि:संदेह खुशी की बात है। यह खास माडल एनसीईआरटी को न केवल पसंद आया, बल्कि उसने इसे अपनी संदर्भ पुस्तिक में भी स्थान दिया है। यह ऐसा माडल है जिसमें सीखने और सिखाने की प्रक्रिया को बेहद सरल ढंग से बताया गया है। नौनिहालों को विभिन्न प्रकार की जानकारी देने के लिए जो पद्धति इसमें बताई गई है, वह वाकई में अनूठी है। लिहाजा, इस माडल को राष्ट्रीय स्तर पर शाबासी मिलना राज्य के लिए बड़ी उपलब्धि है। इसे नकारा नहीं जा सकता है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बुनियादी शिक्षा में हम कहां खड़े हैं। केवल अच्छा माडल तैयार करके और बुनियादी शिक्षा की असलियत को आंकड़ों में उलझााना कहां तक ठीक है। इस पर गौर करना होगा। उत्तराखंड में प्राथमिक शिक्षा के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। सर्वशिक्षा अभियान क्या रंग लाया, इसका कितना फायदा मिला, यह सभी के सामने है। गुणवत्ता सुधार के सरकार के प्रयास कहां तक परवान चढ़े और सरकारी तंत्र इसमें कितनी गंभीरता दिखा रहा है, यह भी बताने की जरूरत नहीं है। हां, इतना जरूर है कि आंकड़ों की बाजीगरी में सरकारी तंत्र माहिर हो गया है। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल यह कि क्या अच्छा माडल बना लेने मात्र से बुनियादी शिक्षा बदल जाएगी, नहीं, अगर ऐसा सोचते हैं तो यह खुशफहमी पालने जैसा है। लिहाजा सरकार को तमाम पहलुओं पर मंथन करना चाहिए। ऐसे हालात क्यों पैदा हुए और सूरतेहाल बेहतरी की संभावनाएं कैसे बढें्र, इस पर फोकस किया जाना चाहिए। भावी कर्णधारों का भविष्य संवारने के लिए जवाबदेही तय करनी होगी। अगर ऐसा नहीं किया गया तो नए माडल बनते जाएंगे, शाबासी भी मिलेगी, लेकिन राज्य जहां खड़ा है वहीं नजर आएगा। यानि बौद्धिक समृद्धि में सूबा लगातार पिछड़ता जाएगा। अभी भी वक्त है सरकार को असलियत से नजरें बचाने की बजाए खामियों को सुधारने पर ध्यान देना चाहिए, तभी कोई मुकाम हासिल किया जा सकता है।