Saturday 7 November 2009

यह कैसी तस्वीर

यह तस्वीर है उत्तराखंड की। गांव पलायन की मार से खाली हो रहे हैं तो शहरों में तिल रखनेभर को जगह नहीं बची। जरा, पीछे मुड़कर देखें, पहले सूबे के पहाड़ी क्षेत्रों से दिल्ली, चंडीगढ़ समेत देश के अन्य शहरों की ओर तेजी से पलायन हो रहा था, अब यह तेजी प्रदेश के शहरों पर अधिक केंद्रित हो गई है। जाहिर है चिंताएं तो बढ़ेंगी ही, गांव की भी और शहरों की भी। शहरों में सीमेंट-कंक्रीट का जैसा जंगल उग रहा है, उसने वहां की सूरत ही नहीं सीरत भी बिगाड़ कर रख दी है। पहचान का संकट है सो अलग। राजधानी देहरादून इसका ज्वलंत प्रतीक है। डेढ़ दशक पूर्व यह शहर क्या था, जहां नजर घुमाओ आम-लीची के बागीचे पसरे नजर आते थे, खेतों में बासमती की महका करती थी। आज क्या है, सिर्फ और सिर्फ कंक्रीट का जंगल। न वह रूमानी मौसम और न तन-मन में ताजगी भर देने वाली आबोहवा। सब विकास की भेंट चढ़ गए। आबादी के अनुपात में वाहनों की बढ़ती तादाद ने शहर की सांसों में जहर घोल दिया है। यही हाल राज्य के अन्य शहरों का भी है। शहरीकरण की अंधी दौड़ हरियाली को पूरी तरह लील चुकी है। यह ठीक है कि सुविधाओं के विस्तार और विकास के लिए कुछ तो कीमत चुकानी ही पड़ती है, लेकिन इसके यह मायने नहीं कि शहर की पहचान ही मिटा दी जाए। इस पर अंकुश लगना जरूरी है। इसके लिए कुछ तो कठोर कदम उठाने ही होंगे, जिससे शहरों पर आबादी का दबाव कम हो। गांवों पर भी ध्यान केंद्रित किए जाने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि इसे लेकर चिंंता न जताई जाती हो। चिंता भी होती है और मंथन भी, लेकिन हमेशा सामने आ खड़ा होता है सुविधाओं का अकाल। यही असली चिंता भी है। मशीनरी को एक न एक दिन तो यह मानना ही पड़ेगा कि गांवों के विकास पर ध्यान केंद्रित किए बिना शहरों का दबाव कम नहीं किया जा सकता। अच्छा हो कि वक्त रहते इस पर ऐसी कोई ठोस नीति अमल में लाई जाए, जो गांवों के भी हित में हो और शहरें के भी। अन्यथा, वह दिन दूर नहीं, जब उत्तराखंड के शहरों में स्थिति विकट हो जाएगी।

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