Saturday 7 November 2009

लहसुन चाहिए, राजमा लाओ

-उत्तरकाशी के सीमांत क्षेत्र उपला टकनौर में अब भी कायम है वस्तु विनिमय की परंपरा -पाव किलो नहीं अब भी चलता है सेर, पाथा और मण उत्तरकाशी यह कहावत तो सभी ने सुनी है, अगर रुपये हों, तो जरूरत की हर चीज आसानी से खरीदी जा सकती है। दुनिया के बाकी हिस्सों में यह बात सटीक भी बैठती है, लेकिन उत्तरकाशी का सीमांत क्षेत्र उपला टकनौर में इसके कोई मायने नहीं। दरअसल, वैश्वीकरण के इस युग में भी यह क्षेत्र व्यापार- विनिमय के आधुनिक तौर- तरीकों से बिलकुल अनजान है। आज भी यहां वस्तुओं के परस्पर विनिमय के जरिए ही यहां व्यापार किया जाता है। बाकायदा बाजार लगाकर विभिन्न जड़ी- बूटियां, लहसुन, हींग, ऊनी कपड़े बेचे जाते हैं, लेकिन इनके बदले में रुपये नहीं, बल्कि राजमा, चौलाई, आलू या चावल लिए जाते हैं। उपला टकनौर की गिनती कभी उत्तरकाशी के समृद्ध क्षेत्रों में हुआ करती थी। भारत- तिब्बत व्यापार का मुख्य बाजार होने के चलते इसका खास स्थान था। उस समय यहां स्थानीय भारतीय व्यापारी तिब्बतियों से अनाज, कपड़ों आदि का व्यापार वस्तुओं के विनिमय के जरिए ही करते थे। अब लंबे समय से भारत- तिब्बत व्यापार बंद हो चुका है, लेकिन इलाके की व्यापारिक परंपराएं आज भी पहले जैसी ही कायम हैं। सर्दियों की शुरुआत होते ही टकनौर के जसपुर, सुक्की, झााला, पुराली, छोलमी आदि गांवों में बगोरी गांव से जाड़ भोटिया समुदाय के लोग सामान लेकर पहुंचते हैं। जिला मुख्यालय से करीब पचास किमी दूर रहने वाले ये लोग लादू, चूरा, बालछड़ी, आरछा जैसी जड़ी बूटियों सहित हींग, अदरक, लहसुन, काला नमक, गर्म ऊनी कपड़े आदि सामान ले जाते हैं। इनके बदले वे स्थानीय लोगों से राजमा, आलू, चौलाई, जौ आदि सामान ले जाते हैं। खास बात यह है कि खरीद फरोख्त में सेर, पाथा, कुंडी व मण जैसे परंपरागत तोल के मानक ही इस्तेमाल किये जाते हैं। फेरी वाले अंदाज में होने वाले इस व्यापार में अब तक रुपये- पैसे शामिल नहीं हो पाए हैं। हालांकि पहले की अपेक्षा अदला बदली की जाने वाली वस्तुओं की फेहरिस्त काफी छोटी हो चली है। इस काम में लगी सरोजनी देवी, रामा देवी व जगदेई ने बताया कि आठ- दस साल पहले तक उपला टकनौर से बाहर काफी दूर तक यह व्यापार होता था, लेकिन अब यह कुछ ही गांवों तक सिमट कर रह गया है और गिनी चुनी वस्तुओं की ही खरीद फरोख्त की जा रही है। अक्टूबर व नवंबर माह तक यह व्यापार करने के बाद ये लोग अपने गर्मियों के ठिकानों की ओर आ जाते हैं। करीब चालीस बरस पहले वस्तु विनिमय पर आधारित यह व्यापार भारत व तिब्बत के बीच बड़े पैमाने पर होता था। बाड़ाहाट निवासी 85 वर्षीय बलदेव सिंह पंवार बताते हैं कि दोरजी यानी तिब्बती व्यापारी चौंर गाय व याक पर सामान लेकर यहां पहुंचते थे। तब वे यहां से ऊनी शालें, चावल, चाय, जौ, गुड़, तंबाकू, चाय, चीनी और तेल जैसे सामान ले जाते थे। उन्होंने बताया कि पहले व्यापार ज्यादा था, लेकिन अब भी वस्तु- विनिमय की परंपरा यहां कायम है। इसकी वजह वह बताते हैं कि वस्तु विनिमय से जहां जाड़ भोटिया समुदाय को खाद्य पदार्थ मिल जाते हैं, वहीं स्थानीय लोगों को भी ऊनी कपड़ों की जरूरत होती है। इस तरह एक दूसरे की आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं, तो फिर रुपये की अनिवार्यता नहीं रहती। तो अगर, कभी आप टकनौर पहुंचें और एक किलो लहसुन लेने का दिल करे, तो एक किलो राजमा अपने साथ ले जाना न भूलें। इनसेट- इस तोल पर होता है मोल एक सेर- एक पाव एक पाथा- दो किलो एक कुंडी- आधा पाथा सोलह पाथा- एक दोण एक मण- चालीस किलो एक दोण, दो कुंडी- एक मण फोटो-4उत्तरकाशी-2

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