Saturday 31 October 2009

पृथक राज्य बना, पर नहीं थमा पलायन

-रोजगार और जनसुविधाओं का अभाव बरकरार -1991 से 2001 के बीच राज्य के 58 गांव जनशून्य -कृषि क्षेत्र में 35 हजार से अधिक की जोत हुई कम : पर्वतीय क्षेत्र से युवाओं का पलायन थमता नजर नहीं आ रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण रोजगार का अभाव रहा है, जो पृथक राज्य बनने के बाद भी दूर नहीं हो सका है। रोजगार के साधन विकसित न होने तथा जनसुविधाओं के अभाव में पलायन की गति पूर्ववत् बनी हुई है। रोजगार के लिए युवाओं के पलायन से पिछले दो दशकों में कृषि क्षेत्र की पैंतीस हजार से अधिक की जोत (नाली) कम हो चुकी है। गैर आबाद गांवों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। उत्तराखंड के पर्वतीय राज्य होने के कारण यहां रोजगार के सीमित साधन रहे हैं। यहां के युवकों को रोजगार के लिए पहाड़ों से मैदानी क्षेत्र में जाना पड़ता है। इसके चलते पलायन पहाड़ की सबसे बड़ी समस्या रही है। इसी समस्या को ध्यान में रखकर पृथक राज्य की मांग उठी थी। इसके अनुरूप अलग पर्वतीय राज्य तो बन गया, लेकिन पलायन की गति नहीं थमी। पिछले दो दशक में ही लाखों लोग पहाड़ से नीचे जा चुके हैं। अर्थ एवं संख्या विभाग के आंकड़ों पर नजर डालें तो वर्ष 2001 से पूर्व पर्वतीय क्षेत्रों से पलायन करने वालों की संख्या 30,71,174 थी। जिसमें पुरुषों की संख्या 10,10,383 तथा महिलाओं की संख्या 20,60,981 है। इनमें से रोजगार के लिए 4 लाख 21 हजार 423 लोगों ने पलायन की राह पकड़ी। रोजगार के लिए पहड़ से उतरने वालों में पुरुष ज्यादा थे। पुरुषों की संख्या 382,988 और महिलाओं की संख्या 38,437 थी। जबकि व्यापार के लिये मात्र 13,383 लोगों ने ही पलायन किया था। इसमें 11,284 पुरुष और 2,099 महिलाएं शामिल थीं। शिक्षा के लिये 50,882 लोग यहां से बाहर गये। जिसमें 36,870 पुरुष और 14,012 महिलाएं शामिल थीं। जन्म के बाद पलायन करने वालों की संख्या भी 23189 रही, जिसमें 13725 पुरुष और 9484 महिलाएं रहीं। पूरे परिवार के साथ पलायन करने वालों की संख्या 658508 है, जिसमें 271356 पुरुष और 387152 महिलाएं शामिल हैं। विवाह होने के कारण क्षेत्र छोडऩे वालों की संख्या 1369658 है, जिसमें 7987 पुरुष 1361711 महिलाएं शामिल हैं। अन्य कारणों से पलायन करने वालों की संख्या 534291 है, जिसमें पुरुष 288175 और महिलाएं 248118 रही है। कमोवेश यही स्थिति राज्य बनने के बाद भी बरकरार है। राज्य से पलायन की गति तीव्र रहने के कारण वर्ष 1991 से लेकर वर्ष 2001 के बीच 58 गांव जनशून्य हो गये थे। गैर आबाद हुए गांवों में उत्तरकाशी के अड़ासू, विंगघेरा तल्ला, चमोली के चमोली, सेजीलगामैकोट, सेमलगा सरतोली, बोलासेरा, कड़ाकोट, सूदा और कुणदेवगढ़ हैं। टिहरी गढ़वाल के नौलीचक, अदगलचक, बनोली, मेगवालगांव तल्ला, सिलौली सेरा, मोरखाली चक, खासखुदौलगा, गजनामाधे और जलेधी हैं। पौड़ी के सजगांव, धामरतल्ला, रतूडा, किमगड़ी, पंथ, भनदारू, जुबीवल्ली, रत्नागुली, अल्मोड़ी, गतौला, उजणां, चैनकियालगांव, निंदखोलू, गणकोट, भंदरसेरा, कुंद, दंगीजामीन, पाथेलसार हैं। रुद्रप्रयाग के सरनातोक व गढख़ून बाघतंथी, पिथौरागढ़ के खिमलिंग, नानेत, दुधरियालगाजखा, किरौली, कपतर, हटलगा पंथखेती, हटवाल बोमेल, अल्मोड़ा के रूमा, नरोला बगढ़, बिनसर, बिनसरमाधेमिस, गैजोले, बजैनियामाफी, मुराद, धूरालमतना, जाख हैं। बागेश्वर के तल्ला सरना और चम्पावत के चमोला गांव भी जनशून्य हो गये हैं। राज्य बनने के बाद भी स्थिति यथावत रहने से गैर आबाद गांवों की संख्या बढ़ती जा रही है। वर्ष 2011 की गणना के बाद ही वास्तविकता का पता चल सकेगा।

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