Tuesday 15 September 2009

उत्तराखंडी भाषा प्राण विहीन लिपि देवनागरी

विश्व में लगभग छः हजार से अधिक बोलियाँ हैं ! इन बोलियों में से कई बोलियाँ भाषा के रूप में परिणत हो गई हैं ! भाषा के रूप में परिणत होने वाली बोलियों में कुछ भारत में बोली जाने वाली बोलियाँ भी हैं, जिन्हें भारत गणराज्य के संबिधान की अष्टम सूची में स्थान दे दिया गया है ! किसी बोली को भाषा के रूप में स्वीकारा जाना उस बोली को बोलने वालों की अपनी बोली के प्रति निष्ठा और उसे सम्मान जनक स्थान दिलाना उस समाज की सफलता है जिसने अपनी बोली को भाषा के रूप में स्थान दिलाने में अपने व अपने समाज के सम्मान के लिए इस उद्देश्य को प्राथमिकता से उजागर किया और बोली को भाषा के रूप में स्वीकारने व स्थान दिलाने में एकता दिखाई ! भाषा के इस उद्देश्य में हम कहाँ हैं! उत्तराखंड एक छोटा सा प्रदेश जिसका भूभाग उत्तर्पूर्ब के छोटे पहाडी प्रदेशों के सामान है तथा इनकी परिस्तिथियाँ भी सामान हैं जिसप्रकार उन प्रदेशों की सीमायें दूसरे देशों से मिली हैं उसी प्रकार उत्तराखंड प्रदेश की सीमा भी चीन और नेपाल क्रमशः दो देशों से जुडी है ! उत्तर्पूर्ब के समान उत्तराखंड प्रदेश समान परिस्तिथियों वाला प्रदेश हैं ! इस मायने में केंद्र सरकार ने जिन नीतियों और मानदंडों को लेकर उत्तर्पूर्ब के प्रदेशों के साथ ब्यवहार किया है उसी प्रकार के ब्यवहार की अपेक्षा उत्तराखंड प्रदेश के साथ भी की जानी चाहिए ! यहाँ हम केवल भाषा की बात करते हैं ! उत्तर्पूर्ब के कुल सात प्रदेशों की अपनी सात भाषाएँ तथा उनकी प्रथक लिपि भी हैं ! जिनकी भाषा लिपि नहीं है उन्हों ने बंगला लिपि को माध्यम मानकर उसमे अपनी स्थानीय भाषा के प्राण अक्षरों को जोड़ा है ! जिसके उपरांत वह उस लिपि में अपनी बोली को स्वछन्द रूप से प्रयोग करने लगे, फल्श्वरूप आज उनकी बोली भाषा का रूप लेकर भारतीय संबिधान की अष्टम सूची में बिराजमान हो गई है ! यहाँ प्रश्न उठता है की उत्तर्पूर्ब के इन सात प्रदेशों को अलग-अलग लिपि या दूसरी लिपि में अपनी भाषा के स्थानीय अक्षरों को जोड़ने की क्यों आवश्यकता पड़ी ! इन सात छोटे पहाड़ी प्रदेशो की केवल एक लिपि हो सकती थी परन्तु नहीं हो सकी ! इनकी एक लिपि न होने का मुख्य कारन है उनकी अपनी भाषाई अस्मिता ! वह अपनी भाषाई पहचान को बरकरार रखना चाहते थे सो उन्हों ने किया अपनी भाषा को प्रतिष्ठित कर दिया ! यहाँ हम तुलना नहीं कर रहे हैं ! उत्तराखंड प्रदेश कई मायनों में उन प्रदेशों से आगे हैं परन्तु भाषाई अस्मिता को सम्मान जनक स्तिथि तक पहुचने में इन प्रदेशो से कई दसक पीछे है ! उत्तराखंड प्रदेश के भाषा विशेषज्ञों का मानना है की उत्तराखंड की भाषा (गढ़वाली-कुमाउनी) की लिपि देवनागरी ही है ! उत्तराखंड में यहाँ की भाषा की लिपि के सम्बन्ध में जो साक्ष्य मिले उनमे अधिकांश शब्द ब्राह्मी लिपि के हैं ! अधिकांश ताम्रपत्रों में स्थानीय बोली में राजे महाराजाओं के फरमान हैं ! जिनकी लिपि ब्राह्मी है ! इन ताम्र पत्रों के लेखों में संस्कृत भाषा का अधिक प्रभाव है ! यहाँ के किसी भी राजा ने अपनी भाषा को अधिक महत्व नहीं दिया है ! ना ही अपने राज्य में प्रयुक्त लोक भाषा को पठान पाठन का माध्यम बनाया ! यह स्तिथि गढ़वाल-कुमाऊं में समान रूप से रही ! इतिहास गवाह है की जिस बोली को राजकीय या शासकीय संरक्षण नहीं मिला वह कभी भाषा के रूप में परिणत नहीं हो पाई, यही दशा आज गढ़वाली कुमाउनी की है ! गढ़वाल और कुमाऊ के राजवंशों ने अपनी राजभाषा संस्कृत मानकर उसमे कम किया है ! संस्कृत भाषा जिसपर ब्राह्मणों का अधिपत्य मन जाता था उसके अध्ययन के लिए भी स्कूल कॉलेज का उल्लेख बहुत कम मिलता है ! कुछ गुरुकुलों का अवश्य उल्लेख मिलता है परन्तु गुरुकुलों में कुछ खास घरानों के बच्चो को ही पढाया जाता था ! आम आदमी तथा आम आदमी की भाषा से राजपरिवार का कुछ लेना देना नहीं था ! एक मायने में कहा जाय की आम आदमी को शिक्षा से दूर रखा गया ! राज्य में जब शिक्षा संस्कृत भाषा के आधार पर कामचलाऊ बनी हुई थी तो आम आदमी की बोली के विकास के विषय में सोचना कितना कठिन था ! उस समय के राजे ब्राह्मणों द्वारा संस्कृत के आधार पर दी गयी शिक्षा पद्धति पर खुश थे ! संस्कृत भाषा में पौराणिकता का गुण था जो आज भी बरकरार है ! राजाओं का संस्कृत मोह ने ही उत्तराखंड की स्थानीय गढ़वाली और कुमाउनी भाषा को कभी तबज्जो नहीं दिया ! जबकि लोक मानस में यहाँ की स्थानीय बोली निरंतर बोली जाती रही हैं ! उत्तरखंड में सोलह सो सदी के बाद देवनागरी लिपि का शुद्ध रूप मिलता है ! सोलह सो सदी के बाद सामाजिक चेतना उभरने लगी थी ! कंपनी सरकार का देश में कई रियासतों को हड़पने की नीति चल रही थी ! मुग़ल रियाशत के पतन का जिम्मेदार बादशाह औरंगजेब के अत्याचार से पीड़ित होकर उसके छोटे भाई दाराशिकोह ने गढ़वाल के राजा की शरण ली ! उस दोरान का पत्र ब्यवहार भी देवनागरी व फारशी लिपि में देखने को मिलता है ! सोलह सो सदी में चित्रकार मोलाराम ने अपने चित्रों में देवनागरी लिपि में नामंकन किया है ! उसके उपरांत देवनागरी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा ! इस बीच कंपनी सरकार ने शिक्षा का प्रचार प्रशार कर दिया ! जगह जगह डी ए बी स्कूल खुलवाए गए, छात्रावास बनाए गए ! इन स्कूलों में स्थानीय धनाड्य परिवारों के बच्चों ने शिक्षा प्राप्त की ! इन विद्यालयों से क्षेत्रीय बोलियों के कुछ विद्यार्थियों ने अपनी स्थानीय बोली को हिंदी भाषा की लिपि देवनागरी के माध्यम से लिखना आरम्भ किया ! स्थानीय बोली में एक के बाद एक कबी, साहित्यकार उत्पन्न हुए तथा उन्हों ने उत्तराखंड को उत्त्तराखंड की बोली में साहित्य का असीमित भंडार बनाकर दिया ! प्रत्येक कबी व साहित्यकार ने अपनी कृति में स्थनीय बोली को लिखने के लिए देवनागरी कमी पाई ! फल्श्वरूप उन्होंने अपने मन की शांति में लिए कहीं बिंदी, कहीं संस्कृत का शब्द तो कहीं उर्दू का जेर जबर लगाकर तसल्ली कर ली, परन्तु जब वह पुस्तक पाठक के पास पहुंची तो पाठक भ्रमित हो गया ! उसे अपनी ही बोली पढने में अटपटी लगने लगी ! नतीजा यह हुआ की उत्तराखंड की इन दोनों बोलियों का लिखित भाषा के रूप में प्रचार प्रशार ही नहीं हुआ ! इसलिए यह दोनों बोलियाँ आज भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही हैं ! डॉ बिहारीलाल जलंधरी

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