Thursday 24 September 2009

-यहां भी जिंदा हैं टिहरी की यादें

-टिहरी बांध विस्थापितों ने सहेज कर रखी हैं कई परंपराएं -हर महीने ढोल पर बजती है बधाई की ताल -आराध्य देवों से जुड़े प्रतीक भी रखे हैं घरों व मंदिरों में मंदिर में पूजा के बाद प्रधान जी के आंगन में ढोल पर खुशहाली के लिए बजते संग्रांद (संक्रांति) के बोल हरिद्वार के कुछ गांवों में आज भी सुनाई पड़ते हैं। यहां भी बसंत शुरू होने पर फूलदेई की परंपरा के चलते नन्हें बच्चे घरों की देहरी पर फूल रख आते हैं तो अपने आराध्य देवी देवताओं के आह्वान के लिए जागर गीत भी गाये जाते हैं। पर्वतीय समाज की ये परंपराएं टिहरी बांध प्रभावित आज भी विस्थापन की त्रासदी झोलने के बावजूद जिंदा रखे हुए हैं। पुरानी टिहरी का डोभ गांव भले ही अब बांध की झाील में समा गया हो, लेकिन इस गांव के आराध्य देवता कैलापीर का पवित्र कलश पथरी के शिवमंदिर में स्थापित है। बांध विस्थापितों की बस्ती में स्थापित इस मंदिर में लोग परंपरानुसार अपने आराध्य को पूजते हैं। गांव के विक्रम दास हर महीने मंदिर परिसर के साथ पूरे गांव में ढोल पर संग्रांद की बढ़ै (बधाई) बजाते हुए देखे जा सकते हैं। वहीं शादी ब्याह में मांगल गीत भी सुनने को मिल जाते हैं। बसंत में फूलदेई का रिवाज भी महीने भर न सही, कुछ दिन जरूर नजर आता है। छोटे बच्चे तड़के उठकर जंगल की ओर फूल चुनने चल देते हैं। गांव भर के जगने से पहले ही घरों की देहरी पर फूल बिखेरने का रिवाज है। हरिद्वार के पथरी सहित रोशनाबाद, रानीपुर व शिवालिक नगर तक के क्षेत्र में पनबिजली के लिए टिहरी झाील में जलसमाधि ले चुके करीब 39 गांवों के लोग बसे हैं। करीब बीस वर्ष से यहां रह रहे इन लोगों के खेती बाड़ी से लेकर जीने के तौर तरीकों में काफी बदलाव आया है। उनके दु:ख दर्द व समस्याएं भी मैदानी क्षेत्र के लोगों जैसी ही हो चुकी हैं। रोजगार, बेहतर शिक्षा व स्वास्थ्य जैसी समस्याएं यहां भी मुंह बाये खड़ी हैं। समस्याओं के बावजूद अपनी विशिष्ट परंपराओं को विस्थापितों ने अब भी जिंदा रखा है। विस्थापितों की सभी बस्तियों में इन परंपराओं का पूरी शिद्दत के साथ निर्वाह किया जाता है। भैरव, नागराजा, नरसिंह आदि आराध्य देवी देवताओं के कलश, मूर्तियों, छत्र व ध्वज के साथ ही देवडोलियां भी यहां मंदिरों व घरों में रखी गई हैं। देवभूमि में जहां देवी देवता जाएंगे, वहां ढोल, दमाऊं, रणसिंगा का पहुंचना भी जरूरी है। लिहाजा ढोलियों के दर्जनों परिवार भी यहां पहुंचे हैं, जो इन खास परंपराओं का पोषण करने में जुटे हैं। वहीं विस्थापितों के स्थानीय परिवेश में घुल मिल जाने से इस क्षेत्र का ग्रामीण परिवेश सांस्कृतिक रूप से और समृद्ध होता नजर आता है। पथरी की ग्राम प्रधान बिंदू देवी के मुताबिक विस्थापन के समय उन लोगों को अनेक कठिनाइयां झोलनी पड़ीं। अपना पैतृक घर गांव छोड़कर आना इतना आसान नहीं था। यहां पहुंचने के बाद सब कुछ नए सिरे से शुरू करना था। इसके बावजूद हम लोगों ने अपनी विशिष्ट परंपराओं को जिंदा रखा है।

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