Thursday 10 September 2009

अब याद नहीं आते 'गढ़वाल के गांधी'

- जयानंद भारतीय की पुण्य तिथि पर विशेष -आजीवन शिल्पकारों के हकों को लड़ते रहे जयानंद आर्य 'पथिक' -मैल्कम हैली के समक्ष तिरंगा लहराने के बाद मिला जयानंद को 'भारतीय' नाम कोटद्वार: 'डोला पालकी' आंदोलन के माध्यम से शिल्पकारों में वैचारिक जागृति उत्पन्न कर शोषक वर्ग के खिलाफ खड़ा करने के लिए प्रेरित करने वाले निर्भीक समाज सुधारक व कर्मठ राष्ट्रीय कार्यकर्ता 'गढ़वाल के गांधी' जयानंद भारतीय को गढ़वाल की जनता भूल चुकी है। प्रखंड बीरोंखाल के अंतर्गत ग्राम अरकंडई (धार की) निवासी शिल्पी छविलाल के घर 17 अक्टूबर 1881 को एक पुत्र का जन्म हुआ। जिसका नाम माता-पिता ने जेबी रखा। पिता छविलाल से विरासत में मिले जागरी (उत्तराखंड में देवी-देवताओं की पूर्जा अर्चना का एक तरीका) कार्य में महारत हासिल करने वाले जेबी ने वर्ष 1911-12 में घर छोड़ दिया व मसूरी पहुंचकर अंग्रेजों की नौकरी करने लगे। यहां उनकी मुलाकात आर्य समाज के पंडित टीकाराम कुकरेती से हुई व जेबी आर्य समाज की ओर आकर्षित हो गए। बाद में गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार में स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज के हाथों यज्ञोपवीत धारण कर जेबी जयानंद आर्य 'पथिक' के नाम से आर्य समाज के प्रचार-प्रसार में जुट गए। आर्य समाज के अछूतोद्धार आंदोलन ने जयानंद को काफी प्रभावित किया। उस दौर में गढ़वाल में शिल्पकार पूरी तरह अछूत हुआ करते थे व उन्हें समाजिक समानता के अधिकारों से वंचित रहना पड़ता था। गढ़वाल के गांव-गांव में घूमकर शिल्पकारों का स्थिति का अध्ययन कर वर्ष 1923 में जयानंद आर्य 'पथिक' ने 'डोला-पालकी' के साथ शिल्पकारों की पहली बारात एकत्र की। यहां यह बताते चलें कि उस दौर में शिल्पकार समाज के दूल्हे को पालकी व दुल्हन को डोली में सवार होना निषेध था। शिल्पकार समाज को उच्च जातियों के दूल्हा-दुल्हनों की डोली-पालकी जबरन उठानी पड़ती थी। जयानंद आर्य 'पथिक' के नेतृत्व में यह बारात प्रखंड दुगड्डा के अंतर्गत ग्राम बीरगांव से कांडी पहुंची। डोली-पालकी के साथ वापस लौट रही बारात को सेंधीखाल के समीप लूट लिया गया व बारातियों की भी बुरी तरह पिटाई की गई, लेकिन जयानंद आर्य ने हार नहीं मानी व उनके नेतृत्व में डोला-पालकी के साथ शिल्पकारों की बारातें निकलती रहीं। आखिरकार 23 फरवरी 1941 को लैंसडौन के सर्वदल सम्मेलन में शिल्पकारों के लिए भी 'डोला-पालकी' के नागरिक अधिकार को स्वीकार कर लिया गया। जयानंद आर्य 'पथिक' ने आजादी के आंदोलन में भी बहुत बड़ा योगदान दिया। छह सितंबर 1932 को गढ़वाल में अंग्रेज परस्त अमन सभाइयों ने अंग्रेज गवर्नर मैल्कम हैली को पौड़ी आमंत्रित किया। उद्देश्य यह जताने का था कि गढ़वाल में अंग्रेज बहादुर के विरुद्ध बगावत करने वाला कोई 'राजद्रोही' नहीं है। जयानंद आर्य जैसे आजादी के दीवानों के लिए यह बात असहनीय थी। कड़ा पहरा होने के बावजूद जान की परवाह न करते हुए जयानंद अपनी आस्तीन में तिरंगा छिपाकर मैल्कम हैली के समीप पहुंच गए व तिरंगा फहराकर 'इंकलाब जिंदाबाद', 'मैल्कम हैली गो बैक', 'अमन सभाई मुर्दाबाद' के नारे लगाने लगे। जयानंद आर्य को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इस दु:साहसिक कार्य ने उन्हें नई पहचान दी व पूरा देश उन्हें जयानंद भारतीय के नाम से जानने लगा। जीवन के अंतिम दिनों में जयानंद भारतीय चार फरवरी 1951 को खास पट्टी के हिंसरियाखाल में एक सभा को संबोधित कर रहे थे, उसी दौरान उत्तेजित सवर्णों ने लाठियों व पत्थरों से उन पर हमला कर दिया। भारतीय को काफी चोटें आई। पुलिस ने आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन जयानंद ने मुकदमा वापस ले लिया और उन्हें मुक्त करवा दिया। उनका मानना था कि 'वर्ग विहीन' व 'जाति विहीन' समाज के बगैर राष्ट्र का विकास संभव नहीं है। अनुसूचित जाति के लोगों पर होने वाले अत्याचारों की रोकथाम के लिए लागू अस्पृश्यता (अपराध) कानून के पीछे जयानंद भारतीय की ओर से चार जून 1952 को प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू को भेजे एक पत्र की अहम भूमिका रही। 71 वर्ष की आयु में नौ सितंबर 1952 को दोपहर दो बजे अपनी पैतृक कुटिया में जयानंद भारतीय ने अंतिम सांस ली। 'पथिक' के योगदानों के लिए पहाड़ की जनता ने उन्हें 'गढ़वाल का गांधी' कह कर सम्मानित किया।

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