Saturday 29 August 2009

उत्तराखंड में कई गांव अनाज पिसाई के लिए घराटों (पनचक्कियों) पर निर्भर

-सावन तय करता है रोटी खाएं या भात इस बार अपेक्षित बारिश न होने से थमे हुए हैं कई घराटों के पट देहरादून आषाढ़ शुरू होते ही वे पपीहा की तरह आसमान की ओर ताकने लगते हैं बारिश के लिए। बारिश की चिंता खेती और पीने के पानी के लिए उतनी नहीं, जितनी घराटों के लिए। चिंता रहती है कि सावन तक ठीकठाक बारिश न हुई तो सालभर सुबह-शाम रोटी की जगह चावल खाने पड़ेंगे। यानी सावन का न बरसना उनके मेन्यू को प्रभावित करेगा। यहां बात हो रही है विषम भौगोलिक परिस्थितियों और सड़क से मीलों दूर जी रहे प्रदेश के ग्रामीणों की। दरअसल, उत्तराखंड के अनेक गांव आज भी अनाज पिसवाने के लिए घराटों (पानी से चलने वाली परंपरागत चक्कियां) पर निर्भर हैं और कई गावों के घराट बरसाती पानी पर निर्भर हैं। आम तौर पर ये जुलाई में शुरू होते हैं और सितंबर की शुरुआत तक बंद हो जाते हैं। इसी करीब दो महीने की अवधि में एक साल का अनाज पीसना गांव वालों की मजबूरी है। इसके लिए फांट व्यवस्था (बारी-बारी) अपनाई जाती है। कुछ घराट पंचायती व्यवस्था के तहत चलते हैं, जबकि कुछ निजी व्यवस्था के तहत संचालित होते हैं। सावन में खूब बारिश न होना इन गांवों के लिए किसी संकट से कम नहीं होता। विडंबना यह है कि सड़कों से मीलों दूर और ऊंची चोटियों पर स्थित ऐसे गांवों में मंडुआ आदि तो पैदा हो जाता है, लेकिन गेहूं नाममात्र का ही होता है। इसकी पूर्ति को ग्रामीणों को दुकानों से गेहूं खरीदना पड़ता है। इसे वे पीठ पर लादकर या खच्चरों के माध्यम से गांवों तक पहुंचाते हंै। जून तक लोग इस गेहूं को छान और सुखाकर पिसवाने के लिए रख देते हैं, लेकिन घराट न चलें तो यह अनाज मवेशियों के ही काम आता है। चूंकि इन गांवों में चक्कियों की कोई व्यवस्था न होने के कारण इस अनाज को पिसवाने के लिए वहीं ले जाना पड़ेगा, जहां से खरीदकर लाया गया हो, ऐसी दोहरी मेहनत बहुत ही कम लोग करते हैं। टिहरी गढ़वाल की डागर पट्टी के टोला और राडागाड गांवों का उदाहरण लेकर ऐसे ग्रामीणों की पीड़ा को समझाा जा सकता है। अभी तक स्थिर इन गांवों के आठों घराटों के पट मानों बारिश होने का इंतजार कर रहे हों। समुद्र तल से करीब छह हजार फुट की ऊंचाई और सड़क से करीब सात किमी दूर इन गांवों में चार घराट पंचायती व्यवस्था और चार निजी व्यवस्था पर संचालित होते हैं, लेकिन इस बार पर्याप्त बारिश न होने से इनके पट थमे हुए हैं। इन गांवों में कुछ लोगों ने हाथ की चक्कियां लगाई हुई हैं, लेकिन खेती व अन्य कार्यों में व्यस्तता होने के कारण इन चक्कियों को चलाने का समय नहीं मिल पाता। इस सूखे ने सुखा दिया खून इस बार के सूखे के इन सूखे ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों का खून सुखा दिया है। अभी तक भारी बारिश के इंतजार में बैठे ग्रामीणों की उम्मीद अब धूमिल होने लगी है। वे चिंतित हैं कि अगर एक हफ्ते तक भी बारिश नहीं हुई तो वे इस साल के लिए खरीदे गए गेहूं की रोटियां नहीं खा पाएंगे। अभी तक किसी भी घराट के पट न घूम पाने के कारण कुछ संपन्न लोग आटे की व्यवस्था करने लगे हैं, लेकिन गरीब-गुरबा तो ऐसा नहीं कर सकता। उरेडा के पास नहीं योजना उत्तराखंड अक्षय ऊर्जा विकास अभिकरण (उरेडा)के पास भी इस समस्या का समाधान नहीं है। वह घराटों का सुधारीकरण या आधुनिकीकरण तो करता है, लेकिन उन्हीं का, जिनमें बारह महीने पानी रहता हो। बारहमास पानी वाले घराटों में उरेडा अनाज पिसाई के अतिरिक्त धान कुटाई, तेल पिराई की तकनीक मुहैया कराता है। साथ ही वहां टरबाइन लगाकर बिजली भी पैदा करता है। उरेडा के सांख्यिकी अधिकारी पीसी सनवाल का कहना है कि अल्प अवधि में पानी वाले घराटों के सुधारीकरण की उरेडा के पास कोई योजना नहीं है, क्योंकि इन्हें संचालित करने के लिए सौर ऊर्जा की लागत काफी अधिक आएगी।

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