Monday 20 July 2009

पहाड़ में रेल

उत्तराखंड के राजनेताओं में पहाड़ पर रेल पहुंचाने की चिंता कुछ ज्यादा ही दिखाई दे रही है। कांग्रेस, भाजपा, बसपा व उक्रांद समेत सभी राजनीतिक दलों के नेता कमोवेश एक तरह की भाषा बोल रहे हैैं। सभी का जोर इस बात पर है कि रेल मंत्रालय को पहाड़ में रेलवे सेवाओं के विस्तार में लाभ-हानि का आंकलन नहीं करना चाहिए। रेल बजट पर चर्चा के दौरान कांग्रेस के सतपाल महाराज व विजय बहुगुणा ने राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में रेल सेवाओं के प्रस्ताव जोडऩे की पैरवी की तो भाजपा के राज्यसभा सदस्य भगत सिंह कोश्यारी ने रेल सेवाओं के विस्तार के मामले में कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास किया। अब मुख्यमंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक ने रेलवे के उच्चाधिकारियों को दो टूक कहा है कि पहाड़ में रेल सेवाओं के परिप्रेक्ष्य में मंत्रालय नफा-नुकसान न देखे। डा. निशंक ने राज्य की रेल जरूरतों का ही खुलासा नहीं किया, बल्कि उत्तराखंड के लिए अधिक से अधिक योजनाओं के प्रस्तावों को हरी झांडी देने की भी पैरवी की। वर्तमान में रेल सेवाओं का विस्तार सभी सियासी दलों की प्राथमिकता में शामिल है। इसके बावजूद उत्तराखंड को रेलवे के मामले में अन्य प्रदेशों की तुलना में कुछ खास हासिल नहीं हुआ है। पर्वतीय क्षेत्रों में रेल पहुंचाने की बात तो दूर, इसके लिए सर्वेक्षण के प्रस्ताव पर भी मंत्रालय ने विचार नहीं किया। ऐसे में रेलवे का विषय पूरी तरह सियासत तक ही सिमटता दिखाई दे रहा है। जहां तक उत्तराखंड में रेल सेवाओं के विस्तार की बात है तो सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण इस राज्य में रेल यातायात पर गंभीर पहल जरूरी है। रेल मंत्रालय जब अन्य पहाड़ी राज्यों में रेलवे सेवाओं पर भारी-भरकम धनराशि खर्च कर सकता है तो उत्तराखंड की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। अविभाजित उत्तर प्रदेश में भी इस पहाड़ी क्षेत्र को नजरअंदाज किया जाता रहा और अब ही यही स्थिति है। हरिद्वार, ऊधमसिंहनगर, नैनीताल व देहरादून पर ही रेलवे की थोड़ी-बहुत कृपा रहती है, जबकि राज्य के अन्य क्षेत्रों में क्या नया हो सकता है, इस पर ध्यान देने की जहमत नहीं उठाई जाती। बदले हालात में जरूरी है कि रेलवे सेवाओं के विस्तार पर नेता बातें कम करें और धरातल की जरूरतों पर गंभीरता से पहल करें। अन्यथा रेल का मुद्दा केवल चुनावी हथियार ही बनकर रह जाएगा, जिससे राज्य को कुछ हासिल नहीं होगा।

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