Tuesday 14 July 2009

खतरे में प्रकृति का अनमोल खजाना

-अनियोजित दोहन, सरकारों की उदासीनता ने 'दुर्लभ' श्रेणी में पहुंचाई लगभग दो सौ प्रजातियां -पेटेंट औषधियों के निर्माण में उतरीं बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियां -आयुर्वेदिक औषधियों, हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों की मांग बढऩे से बड़े पैमाने पर हो रही तस्करी -स्वयं तक सीमित रखे हुए हैं भैषज्य ज्ञान के जानकर महत्वपूर्ण जानकारियां देहरादून, उत्तराखंड में अनियोजित दोहन और सरकारों की उदासीनता के चलते जड़ी-बूटियों की सैकड़ों प्रजातियों पर अस्तित्व का संकट मंडरा रहा है। लगभग दो सौ पादप प्रजातियां तो विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई हैं। समय रहते यदि इस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य की पीढ़ी को इन दुर्लभ जड़ी-बूटियों के लाभ से वंचित रहना पड़ सकता है। 'मेडिसिन फ्लोरा ऑफ गढ़वाल हिमालयाज' में डा.मायाराम उनियाल ने आठ सौ से अधिक जड़ी-बूटियों का उत्तराखंड के विभिन्न क्षेत्रों में मिलने का उल्लेख किया है। हालांकि, कई जड़ी-बूटियां तो अब मिलती ही नहीं हैं और जो मौजूद हैं भी, उनमें से करीब 200 प्रजातियां 'दुर्लभ' की श्रेणी में आ गई हैं। दरअसल, अमरीका, ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में आयुर्वेदिक औषधियों (हर्बल ड्रग्स) के प्रति आकर्षण पैदा होने से बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियां पेटेंट औषधियों के निर्माण में उतर आई हैं। इसके अलावा बड़े पैमाने पर जड़ी-बूटियों की तस्करी भी हो रही है। विदेशों में आयुर्वेदिक औषधियों व हर्बल सौंदर्य प्रसाधनों की मांग बढऩा इसकी प्रमुख वजह है। केंद्रीय आयुर्वेद आयुष विभाग के पूर्व निदेशक डा.मायाराम उनियाल बताते हैं कि तमाम कारणों से हिमालय पर्वत शृंखलाओं में पाई जाने वाली अधिकांश पादप प्रजातियां आज संकटग्रस्त हो गई हैं। 'भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण विभाग' ने भी माना है कि द्रव्यों के अस्तित्व पर संकट का कारण अविवेकपूर्ण दोहन, वनों का कटान व प्राकृतिक वन संपदा का क्षरण होना है। एक दौर में हरड़, बहेड़ा, आंवला, बिल्लू, बदरी, प्याल (चिरोंजी), सेमल, जामुन, पिपली, ब्राह्मी, लटजीरा, कालाबांसा, गूलर, विडंग, अमलताश, जंगली पुदीना, गिलोय, अकरकरा, अगर तगर, सुसवा, सैन, चिरायता, धतूरा, आक, भिलावा, जमालघोटा, भृंगराज, मेदा, महमेदा, काकोली, जीवक, कौंच, ऋषभक, क्षीरकाकोली जैसी सैकड़ों वनौषधियां उत्तराखंड के वन क्षेत्रों में सरलता से मिल जाती थीं। लेकिन, आज यह मात्र पुस्तकों तक सिमट कर रह गई हैं। डा.उनियाल बताते हैं कि उच्च हिमालय से लेकर शिवालिक क्षेत्र में वैध-अवैध रूप से सैकड़ों ठेकेदार जड़ी-बूटी संग्रह में लगे हैं। लेकिन, अप्रशिक्षित एवं अनुभवहीन मजदूरों से यह कार्य कराने के कारण दुर्लभ जड़ी-बूटियों का संग्रह कम, विनाश अधिक हो रहा है। वह कहते हैं कि इनके संरक्षण-संवद्र्धन हेतु मजबूत कानून के साथ ही अभियान के स्तर पर काम किए जाने की जरूरत है।

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