Wednesday 24 June 2009

न संस्कृति सुरक्षित रही, न परंपराएं ही

उत्तराखंडी समाज जिस तरह अपने रीति-रिवाज, परंपराओं, यहां तक कि खान-पान को भी भूल रहा है, उससे आशंका बन रही है कि कहीं इस समाज को भविष्य में अस्तित्व न तलाशना पड़े। गुजरात के लोग भले ही ढाल में चीनी, केरल के नारियल व मछली, बंगाली माछ-भात, राजस्थानी मट्ठा व मकई की रोटी, पंजाबी सरसों का साग खाना नहीं भूलते, लेकिन उत्तराखंडी कोदा-झंगोरा को बिसरा चुके हैं। यह कैसी विडंबना है कि पहाड़ के लोगों को ही उनके परंपरागत व्यंजनों से परिचित कराने के लिए स्टाल लगाने की जरूरत पड़ रही है। जरा उस दौर को याद करें, जब पूरा पहाड़ी जनमानस सड़कों पर उमड़ पड़ा था। हर ओर एक ही आवाज थी कि कोदा-झंगोरा खाएंगे, उत्तराखंड बनाएंगे, लेकिन उत्तराखंड बनने के बाद शायद ही किसी ने सोचा हो कि पारंपरिक अनाजों से तैयार व्यंजन इस पर्वतीय राज्य की पहचान बन सकते हंै। किसी क्षेत्र का खानपान वहां का भौगोलिक परिवेश निर्धारित करता है। संबंधित इलाके में किसी खास तरह के अनाज को अपनाने के पीछे मुख्य वजह है, वहां इसकी ज्यादा पैदावार। वहां की जलवायु, लोगों का जीवन स्तर, काम करने की शैली व प्रवृत्ति, लोगों की रुचि खान-पान की एक खास परंपरा को जन्म देती है। उत्तराखंड की बात करें तो यहां परंपरा में कोदा-झंगोरा, गहथ, उड़द व तोर मिली हुई है और इसी से मिली है फाणू, थिंचौणी, कफली जैसे स्वादिष्ट एवं पौष्टिक व्यंजन बनाने की शैली। रोट, अरसा, खटाई, तिलों की चटनी, पतूड़, उड़द के पकवान जैसे व्यंजनों को बनाने की विधि भी पहाड़ की विरासत का हिस्सा है। इन सभी व्यंजनों का महत्व पहाड़ में सिर्फ स्वाद के लिए नहीं है, बल्कि ये यहां की जलवायु व परिस्थिति के अनुसार भी हैं। पहाड़ की ठंडी जलवायु में कोदा और फाणू का महत्व सहज समझा जा सकता है। दिल्ली में उत्तराखंडी सरोकारों से जुड़े मौल्यार संस्था के जयपाल सिंह रावत व नत्थीप्रसाद सुयाल कहते हैं कि हम आखिर कब तक स्टाल लगाकर अपनी परंपराओं व रीति-रिवाजों का मातम मनाते रहेंगे। वह कहते हैं कि जब गुजराती ढेकुली दुकानों में सज सकती है तो फिर कोदे की पेस्टी क्यों नहीं। बिहार का सत्तू सजीले पैकेट में बंद होकर मुंबई की दुकानों की शोभा बढ़ा सकता है तो टिहरी की सिंगोरी व अल्मोड़ा की बाल मिठाई बड़े-बड़े शहरों में क्यों नहीं जा सकती। होटल व्यवसाय से जुड़े कमलेश जोशी कहते हैं उत्तराखंडी व्यंजनों को यदि प्रोत्साहन मिले तो यह आर्थिकी संवारने का मजबूत जरिया बन सकते हैं। लेकिन, सरकारी स्तर पर इस दिशा में कोई प्रयास नहीं हुए। व्यावसायिक नजरिए से इन्हें प्रचार मिले तो इनके प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ेगा। इधर, जीएमवीएन के जीएम युगल किशोर पंत का कहना है कि निगम के मीनू में पारंपरिक व्यंजन भी शामिल हैं, लेकिन इन्हें डिमांड पर ही तैयार किया जाता है। निगम के कुछ होटलों में जरूर पारंपरिक व्यंजन तैयार मिलते हैं। इन्हें प्रोत्साहित करने को निगम के स्तर पर क्या प्रयास हो रहे हैं, इस सवाल को वह टाल गए।

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