Tuesday 12 May 2009

जसपाल के निशाने पर बहुगुणा की विरासत

देहरादून बे अरसे तक राजघराने के पास रही टिहरी संसदीय सीट की तस्वीर इस चुनाव में एकदम अलग है। भौगोलिक व सांस्कृतिक विविधताओं के साथ ही जातिगत आंकड़ों में उलझी इस सीट पर दल अथवा प्रत्याशी विशेष के पक्ष में कोई हवा नहीं है। दावेदारों के पास ठोस मुद्दों की भी कमी है। यहां एक तरफ कांग्रेस के सिटिंग एमपी विजय बहुगुणा हैं, जो राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। दूसरी तरफ भाजपा के रथ पर सवार अंतरराष्ट्रीय खिलाड़ी जसपाल राणा हैं, जो निशानेबाजी के चैंपियन हैं। इन दो खिलाडि़यों के बीच बसपा के मुन्ना सिंह चौहान हैं, जो समीकरण बनाने-बिगाड़ने का दावा कर रहे हैं। हर सूरमा जनता की नब्ज टटोलने को बेताब है। जोड़तोड़ ही नहीं, हर हथकंडा अपनाया जा रहा है। आंकड़ों का गणित इस कदर उलझ गया है कि कौन बाजी मार ले जाए, कहना मुश्किल है। इस सीट पर 18 प्रत्याशी खम ठोक रहे हैं, लेकिन तीन को छोड़कर बाकी प्रत्याशियों की कोई अहमियत नहीं है। 2007 के उपचुनाव में राजघराने का तिलिस्म टूटने के बाद भाजपा ने पहली बार इस परिवार को सीधे दंगल से दूर कर जसपाल पर भरोसा जताया है। प्रसिद्धि के शिखर पर चढ़े जसपाल का भले ही राजनीति में यह पहला इम्तिहान हो, लेकिन खिलाड़ी के रूप में उन्हें हर कोई जानता है। उनकी असल टक्कर कांग्रेस प्रत्याशी और सिटिंग एमपी विजय बहुगुणा से है। बहुगुणा के पास लोस चुनाव लड़ने का लंबा-चौड़ा अनुभव है। राज परिवार से उनकी खूब भिड़ंत हुई और आखिरकार नए महाराज को पटखनी देने में सफल भी रहे। दिवंगत हेमवती नंदन बहुगुणा का नाम भी उनके साथ चल रहा है। उनका बाकी परिवार भी सक्रिय राजनीति में है। विजय बहुगुणा के सामने जहां अपनी सीट को बचाने की चुनौती है, वहीं जसपाल राणा को अंतरराष्ट्रीय फलक पर मिली ख्याति को बरकरार रखने के लिए दमदार प्रदर्शन की दरकार है। ऐसे में दोनों सूरमाओं के लिए यह चुनाव प्रतिष्ठा से भी जुड़ा है। जसपाल राणा विजय बहुगुणा कांटे की टक्कर टिहरी सीट की दास्तान काफी रोचक है। दल कोई भी रहा हो, अवाम का भरोसा हमेशा राज परिवार पर ही रहा। 1952 से शुरू हुआ राज परिवार का संसदीय सफर इन छह दशकों में एकाध चुनावों को छोड़कर 2007 तक चला। अलबत्ता, विकल्प के रूप में वामदलों ने भी यहां दावेदारी की, पर जनमत जुटाने में हमेशा ही असफल रहे।

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