Friday 27 February 2009

कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन

देहरादून एक दौर में दून के रंगमंच की चर्चा समूचे उत्तर भारत में होती थी। यह वह कालखंड है, जब लखनऊ, इलाहाबाद, वाराणसी, मुंबई, चंडीगढ़, सहारनपुर, भारत भवन भोपाल जैसे शहरों में स्थानीय नाट्य संस्थाओं द्वारा नाटकों के सफल प्रदर्शन के फलस्वरूप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का भी ध्यान दून की ओर आकृष्ट हुआ। लेकिन, इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि तब दून के रंगमंच को समृद्धि की पराकाष्ठा पर ले जाने वाली नाट्य संस्थाएं आज आपसी गुटबाजी के प्रभाव में एक-दूसरे से अपरिचित सी हो गई हैं। रामलीला से आरंभ होकर दून का रंगमंच कोलकाता की कोरिन्यियन ड्रामा कंपनी और फिर साधुराम महेंद्रू के लक्ष्मण ड्रामेटिक क्लब के पारसी नाटकों से गुजरता हुआ 70 के दशक तक पहुंचा। यहीं से दून रंगमंच का स्वर्णिम काल शुरू होता है, जो 90 के दशक तक बदस्तूर जारी रहा। इस दौर में यहां की कई नाट्य संस्थाओं व रंगकर्मियों ने राष्ट्रीय स्तर पर न सिर्फ अपनी कला का लोहा मनवाया, बल्कि दून रंगमंच को पहचान भी दिलाई।इस सफलता में नेहरू युवा केंद्र की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। उन दिनों केंद्र को रंगकर्मियों के बीच मंडी हाउस के नाम जाना जाता था। रंगमंच की समस्त गतिविधियां केंद्र से ही संचालित होती थीं। यह दौर इस मायने में भी अविस्मरणीय है कि अमरदीप चड्ढा के बाद हिमानी शिवपुरी, श्रीश डोभाल, चंद्रमोहन व अरविंद पांडे को इसी दौरान एनएसडी में प्रवेश मिला। इसी अवधि में अशोक चक्रवर्ती, अविनंदा, एवी राणा, अवधेश कुमार, सहदेव नेगी, ज्योतिष घिल्डियाल, ज्ञान गुप्ता, टीके अग्रवाल, सतीश चंद्र, तपन डे, दीपक भट्टाचार्य, अजय चक्रवर्ती, धीरेंद्र चमोली, रामप्रसाद सुंद्रियाल, गजेंद्र वर्मा, अतीक अहमद, रमेश डोबरियाल, सुरेंद्र भंडारी, दुर्गा कुकरेती जैसे मंझे हुए रंगकर्मियों की मजबूत जमात भी खड़ी हुई। लेकिन, नेहरू युवा केंद्र के बंद होते ही नाट्य संस्थाओं के साथ रंगकर्मी भी बिखर से गए। आज क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों व वीडियो एलबमों की व्यस्तता के कारण कलाकारों के पास समय का अभाव है, जिसका सीधा असर रंगमंच पर पड़ा। इस सबके बावजूद दून में वरिष्ठों का अनुभव और युवाओं की ऊर्जा रंगमंच की शम्आ जलाए हुए है। रंगकर्मी अभिषेक मैंदोला कहते हैं कि रंगमंच मानवीय है। जब तक जीवन है रंगमंच है। वह बीमार पड़ सकता है, थक सकता है, पर मर नहीं सकता। वरिष्ठ रंगकर्मी यमुनाराम का कहना है कि रंगमंच को संतुष्टि तक ही सीमित नहीं रखना होगा। सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर तलाश कर नए आयाम जुटाने होंगे।

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